अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 93/ मन्त्र 1
उत्त्वा॑ मन्दन्तु॒ स्तोमाः॑ कृणु॒ष्व राधो॑ अद्रिवः। अव॑ ब्रह्म॒द्विषो॑ जहि ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । त्वा॒ । म॒न्द॒न्तु॒ । स्तोमा॑: । कृ॒णु॒ष्व । राध॑: । अ॒द्रि॒व॒: ॥ अव॑ । ब्र॒ह्म॒ऽद्विष॑: । ज॒हि॒ ॥९३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्त्वा मन्दन्तु स्तोमाः कृणुष्व राधो अद्रिवः। अव ब्रह्मद्विषो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । त्वा । मन्दन्तु । स्तोमा: । कृणुष्व । राध: । अद्रिव: ॥ अव । ब्रह्मऽद्विष: । जहि ॥९३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 93; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु-स्तवन व ज्ञानियों का संग
पदार्थ -
१. हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो! (त्वा) = आपको (स्तोमः) = हमसे की जानेवाली स्तुतियाँ (उत् मन्दन्तु) = उत्कर्षेण आनन्दित करें। ये स्तोत्र हमें आपका प्रिय बनाएँ। आप हमारे लिए (राध: कृणुष्व) = कार्यसाधक धनों को कीजिए, अर्थात् आवश्यक धनों को हमारे लिए दीजिए। २. (ब्रह्मद्विषः) = ज्ञान से अप्रीतिवाले लोगों को (अवजहि) = हमसे दूर कीजिए। हमें ज्ञानी लोगों का ही सम्पर्क प्राप्त हो। मूखों के सम्पर्क से हम सदा दूर रहें।
भावार्थ - हम प्रभु-स्तवन करते हुए कार्यसाधक धनों को प्राप्त करें और ज्ञानियों के सम्पर्क में रहें, ज्ञान-प्राप्ति की रुचिवाले बनें।
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