अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 93/ मन्त्र 7
त्वमि॑न्द्र स॒जोष॑सम॒र्कं बि॑भर्षि बा॒ह्वोः। वज्रं॒ शिशा॑न॒ ओज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॒न्द्र॒ । स॒ऽजोष॑सम् । अ॒र्कम् । बि॒भ॒र्षि॒ । बा॒ह्वो: ॥ वज्र॑म् । शिशा॑न: । ओज॑सा ॥९३.७॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्र सजोषसमर्कं बिभर्षि बाह्वोः। वज्रं शिशान ओजसा ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । सऽजोषसम् । अर्कम् । बिभर्षि । बाह्वो: ॥ वज्रम् । शिशान: । ओजसा ॥९३.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 93; मन्त्र » 7
विषय - सजोषसं अके, ओजसा वज्रम्
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता बननेवाले जीव! (त्वम्) = तू (बाह्वोः) = अपनी भुजाओं में (सजोषसम्) = ओज व उत्साह से युक्त (अर्कम्) = [अर्च पूजायाम्] स्तुत्य सूर्यसम तेज को (बिभर्षि) = धारण करता है। 'प्राणो वा अर्कः' [श० १०.४.१.२३] के अनुसार तू प्राणशक्ति सम्पन्न जीवनवाला बनता है। २. तु (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा (वज्रम्) = अपने वज्र को (शिशान:) = तीक्ष्ण करनेवाला है। 'वज् गतौ' से बना हुआ 'वज' शब्द क्रियाशीलता का वाचक है। ओजस्विता के कारण तेरा जीवन बड़ा क्रियाशील बनता है।
भावार्थ - बालक को माता ने उत्साहयुक्त तेजवाला तथा ओजस्वितायुक्त क्रियाशीलता वाला बनाना है।
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