अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 93/ मन्त्र 6
त्वमि॑न्द्रासि वृत्र॒हा व्यन्तरि॑क्ष॒मति॑रः। उद्द्याम॑स्तभ्ना॒ ओज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒सि॒ । वृत्र॒ऽहा । वि । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒ति॒र॒: ॥ उत् । द्याम् । अ॒स्त॒भ्ना॒ : । ओजसा ॥९३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्रासि वृत्रहा व्यन्तरिक्षमतिरः। उद्द्यामस्तभ्ना ओजसा ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । असि । वृत्रऽहा । वि । अन्तरिक्षम् । अतिर: ॥ उत् । द्याम् । अस्तभ्ना : । ओजसा ॥९३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 93; मन्त्र » 6
विषय - उदारहृदय-उत्कृष्ट मस्तिष्क
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! (त्वं चत्रहा असि) = तू ज्ञान की आवरणभूत वासना का विनाश करनेवाला है। (अन्तरिक्षं वि अतिरः) = तू ज्ञान को आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करके हृदयान्तरिक्ष को विशेषरूप से बढ़ानेवाला है, अर्थात् तू अपने हृदय को विशाल बनाता है तथा २. (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (द्याम्) = मस्तिष्करूप घुलोक को (उत् अस्तभना:) = उत्कृष्ट स्थान में थामता है, अर्थात् तू मस्तिष्क को उत्कृष्ट ज्ञान-सम्पन्न बनाता है।
भावार्थ - माता बालक को प्रेरणा देती है कि [क] तूने वासनाओं को विनष्ट करनेवाला बनना है [ख] हृदय को विशाल बनाना है तथा [ग] ओजस्विता के साथ मस्तिष्क को ज्ञानोज्ज्वल करना है।
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