अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 93/ मन्त्र 5
त्वमि॑न्द्र॒ बला॒दधि॒ सह॑सो जा॒त ओज॑सः। त्वं वृ॑ष॒न्वृषेद॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॒न्द्र॒ । बला॑त् । अधि॑ । सह॑स: । जा॒त: । ओज॑स: । त्वम् । वृ॒ष॒न् । वृषा॑ । इत् । अ॒सि॒ ॥९३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्र बलादधि सहसो जात ओजसः। त्वं वृषन्वृषेदसि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । बलात् । अधि । सहस: । जात: । ओजस: । त्वम् । वृषन् । वृषा । इत् । असि ॥९३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 93; मन्त्र » 5
विषय - बालक को माता की प्रेरणा
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता बननेवाले प्रिय ! (त्वम्) = तू (बलात्) = बल से, (सहसः) = सहस् से–सहनशक्तिवाले बल से तथा (ओजस:) = ओज से (अधिजात: असि) = आधिक्येन प्रसिद्ध हुआ है। तेरा मनोमयकोश'बल व ओज' से सम्पन्न बना है तथा आनन्दमयकोश'सहस्'वाला हुआ है। २. हे (वृषन्) = शक्तिशाली इन्द्र ! (त्वम्) = तू (इत्) = निश्चय से (वृषा असि) = शक्तिशाली है। तूने अपने को शक्ति से सिक्त करना है।
भावार्थ - माता प्रारम्भ से बालक को यही प्रेरणा देती है कि तूने 'बलवान्, ओजस्वी व सहस्वी' बनना है। तूने अवश्य शक्तिशाली होना है।
इस भाष्य को एडिट करें