अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 93/ मन्त्र 4
ई॒ङ्खय॑न्तीरप॒स्युव॒ इन्द्रं॑ जा॒तमुपा॑सते। भे॑जा॒नासः॑ सु॒वीर्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठई॒ङ्खय॑न्ती: । अ॒प॒स्युव॑: । इन्द्र॑म् । जा॒तम् । उप॑ । आ॒स॒ते॒ ॥ भे॒जा॒नास॑: । सु॒ऽवीर्य॑म् ॥९३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
ईङ्खयन्तीरपस्युव इन्द्रं जातमुपासते। भेजानासः सुवीर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठईङ्खयन्ती: । अपस्युव: । इन्द्रम् । जातम् । उप । आसते ॥ भेजानास: । सुऽवीर्यम् ॥९३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 93; मन्त्र » 4
विषय - देवजामय:-'इन्द्र' मातरः
पदार्थ -
१. (ईखयन्तीः) = स्तुति के द्वारा प्रभु की ओर गति करनेवाली, (अपस्युव:) = अपने साथ कर्म को जोड़नेवाली माताएँ (जातम्) = उत्पन्न हुए-हुए (इन्द्रम्) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता बननेवाले बालक को (उपासते) = उपासित करती हैं, अर्थात् सदा इसका ध्यान करती हैं, इसे अपनी आँखों से ओझल नहीं करती। २. इसका निर्माण करनेवाली ये माताएँ (सुवीर्यम् भेजानास:) = उत्तम वीर्य व शक्ति का सेचन करनेवाली होती है। स्वयं संयमी जीवन बिताती हुई ये शक्ति का रक्षण करती हैं। इनका आपना जीवन संयमवाला न हो तो इन्होंने बच्चों का क्या निर्माण करना? 'स्तुति, क्रिया व संयम' के द्वारा ही तो ये 'देवजामय' बनती हैं।
भावार्थ - बालक को वही माता 'इन्द्र' बना पाती है जो 'प्रभु-स्तवन, क्रियाशीलता व संयम' को अपनाती है।
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