अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 93/ मन्त्र 8
त्वमि॑न्द्राभि॒भूर॑सि॒ विश्वा॑ जा॒तान्योज॑सा। स विश्वा॒ भुव॒ आभ॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒भि॒ऽभू: । अ॒सि॒ । विश्वा॑ । जा॒तानि॑ । ओज॑सा ॥ स: । विश्वा॑: । भुव॑: । आ । अ॒भ॒व॒: ॥९३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्राभिभूरसि विश्वा जातान्योजसा। स विश्वा भुव आभवः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । अभिऽभू: । असि । विश्वा । जातानि । ओजसा ॥ स: । विश्वा: । भुव: । आ । अभव: ॥९३.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 93; मन्त्र » 8
विषय - 'अभिभू' बनकर 'आभूति' वाला होना
पदार्थ -
१.हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय व शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले बालक! (त्वम्) = तू (विश्वा जातानि) = सब उत्पन्न हुए-हुए इन वासनारूप शत्रुओं को (ओजसा) = अपनी ओजस्विता से (अभिभूः असि) = पराभूत करनेवाला है। काम, क्रोध, लोभ से तू आक्रान्त नहीं होता। २. (स:) = वह तू (विश्वा:) = सब (भुवः) = भूमियों को-अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमयकोशों को (आभव:) = आभूति [ऐश्वर्य]-वाला बनाता है। इन्हें क्रमश: 'तेज, वीर्य, बल व ओज, मन्यु तथा सहस्' से परिपूर्ण करता है।
भावार्थ - माता ने बालक को यह प्रेरणा देनी है कि [क] तूने काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रुओं को अभिभूत करना है तथा [ख] अन्नमय आदि सब कोशो का आभूतिवाला बनाना है।माता से उत्तम प्रेरणा प्राप्त करके यह शत्रुओं का कर्षण करनेवाला 'कृष्ण' बनता है-यह अंग-प्रत्यंग में रसवाला'आंगिरस होता है। यह इन्द्र का उपासन करता है और प्रभु इस छोटे इन्द्र को कहते हैं कि -
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