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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त

    यदि॑ क्षि॒तायु॒र्यदि॑ वा॒ परे॑तो॒ यदि॑ मृ॒त्योर॑न्ति॒कं नी॑त ए॒व। तमा ह॑रामि॒ निरृ॑तेरु॒पस्था॒दस्पा॑र्षमेनं श॒तशा॑रदाय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । क्षि॒तऽआ॑यु: । यदि॑ । वा॒ । परा॑ऽइत: । यदि॑ । मृ॒त्यो: । अ॒न्ति॒कम् । निऽइ॑त: । ए॒व । तम् । आ । ह॒रा॒मि॒ । नि:ऽऋ॑ते: । उ॒पस्था॑त् । अस्पा॑र्शम् । ए॒न॒म् । श॒तऽशा॑रदाय ॥११.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदि क्षितायुर्यदि वा परेतो यदि मृत्योरन्तिकं नीत एव। तमा हरामि निरृतेरुपस्थादस्पार्षमेनं शतशारदाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि । क्षितऽआयु: । यदि । वा । पराऽइत: । यदि । मृत्यो: । अन्तिकम् । निऽइत: । एव । तम् । आ । हरामि । नि:ऽऋते: । उपस्थात् । अस्पार्शम् । एनम् । शतऽशारदाय ॥११.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 11; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (यदि) = यदि (क्षितायु:) = यह रागी क्षीण जीवनवाला हो गया हो, (यदि वा) = अथवा (परा इत:) = यह रोगों में दूर चला गया हो, (यदि) = यदि (मृत्योः अन्तिकम्) = मृत्यु के समीप (एव) = ही (नीत:) = ले-जाया गया है, अर्थात् एकदम मरणासन्न हो तो भी (तम्) = उस रोगी को (निते: उपस्थात्) = दुर्गति [मृत्यु] की गोद से (आहरामि) = मैं वापस ले-आता हूँ। हवि के द्वारा इसे रोगों से मुक्त कर देता हूँ। २. मैं (एनम्) = इसे (शतशारदाय) = सौ वर्ष के दीर्घजीवन के लिए (अस्पार्शम्) = [अस्पार्षम्] बल व प्राणयुक्त करता हूँ अथवा इसे छूता हूँ [स्पृश] और छूकर रोग निवृत्त करता हूँ।

    भावार्थ -

    क्षीण जीवनवाले, बढ़े हुए रोगबाले, मरणासन्न पुरुष को भी मैं बल व प्राणयुक्त करके दीर्घजीवनवाला करता हूँ।

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