अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शान्ति सूक्त
यः सोमे॑ अ॒न्तर्यो गोष्व॒न्तर्य आवि॑ष्टो॒ वयः॑सु॒ यो मृ॒गेषु॑। य आ॑वि॒वेश॑ द्वि॒पदो॒ यश्चतु॑ष्पद॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । सोमे॑ । अ॒न्त: । य: । गोषु॑ । अ॒न्त: । य: । आऽवि॑ष्ट: । वय॑:ऽसु । य: । मृ॒गेषु॑ । य: । आ॒ऽवि॒वेश॑ । द्वि॒ऽपद॑: । य: । चतु॑:ऽपद: । तेभ्य॑: । अ॒ग्निऽभ्य॑: । हु॒तम् । अ॒स्तु॒ । ए॒तत् ॥२१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यः सोमे अन्तर्यो गोष्वन्तर्य आविष्टो वयःसु यो मृगेषु। य आविवेश द्विपदो यश्चतुष्पदस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । सोमे । अन्त: । य: । गोषु । अन्त: । य: । आऽविष्ट: । वय:ऽसु । य: । मृगेषु । य: । आऽविवेश । द्विऽपद: । य: । चतु:ऽपद: । तेभ्य: । अग्निऽभ्य: । हुतम् । अस्तु । एतत् ॥२१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
विषय - सोम, गौ, पशु-पक्षी तथा मनुष्यों में अग्नि की ठीक स्थिति
पदार्थ -
१. (य:) = जो अग्नि (सोमे अन्त:) = लतारूप सोम में अमृतमय रस के परिपाक के लिए प्रविष्ट हुआ-हुआ है, (य:) = जो अग्नि (गोषु अन्त:) = गौ आदि ग्राम्य पशुओं में (आविष्टः) = प्रविष्ट हुआ-हुआ परिपक्व दूध का निर्माण करता है, (यः) = जो अग्नि (वयःसु) = पक्षियों में अनुप्रविष्ट है, (य:) = जो (मृगेषु) = हरिण आदि में अनुप्रविष्ट है, २. तथा (यः) = जो अग्नि (द्विपदः) = दो पाँववाले मनुष्य आदि में तथा (यः) = जो (चतुष्पदः) = चार पाँववाले अन्य प्राणियों में जाठर [वैश्वानर] रूप में (आविवेश) = प्रविष्ट हो रहा है, (तेभ्यः अग्रिभ्यः) = उन सब अग्नियों के लिए (एतत्) = यह (हुतम्, अस्तु) = हवन हो।
भावार्थ -
यज्ञों के होने पर यदि ओषधियों में रस का सञ्चार ठीक होता है तो गौवों में दूध का परिपाक ठीक प्रकार से होता है, अन्य पशु-पक्षियों व मनुष्यों में जाठररूप में निवास करनेवाली वैश्वानर अग्नि भी ठीक बनी रहती है।
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