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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 21/ मन्त्र 6
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती सूक्तम् - शान्ति सूक्त

    उ॒क्षान्ना॑य व॒शान्ना॑य॒ सोम॑पृष्ठाय वे॒धसे॑। वै॑श्वान॒रज्ये॑ष्ठेभ्य॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒क्षऽअ॑न्नाय । व॒शाऽअन्ना॑य । सोम॑ऽपृष्ठाय । वे॒धसे॑ । वै॒श्वा॒न॒रऽज्ये॑ष्ठेभ्य: । तेभ्य॑: । अ॒ग्निऽभ्य॑: । हु॒तम् । अ॒स्तु॒ । ए॒तत् ॥२१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्षान्नाय वशान्नाय सोमपृष्ठाय वेधसे। वैश्वानरज्येष्ठेभ्यस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उक्षऽअन्नाय । वशाऽअन्नाय । सोमऽपृष्ठाय । वेधसे । वैश्वानरऽज्येष्ठेभ्य: । तेभ्य: । अग्निऽभ्य: । हुतम् । अस्तु । एतत् ॥२१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. (उक्षान्नाय) = [उक्षा-one of the chief medicament] पौष्टिक ओषधियों को ही अपना अन्न बनानेवाला, (वशानाय) =  [वशा-पृथिवी-श०१.८.३.१५.] पृथिवी को ही अपना अन्न बनानेवाला, अर्थात् वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करनेवाला, (सोमपृष्ठाय) = सोमशक्ति को ही अपना आधार बनानेवाला-ऐसे (वेधसे) = ज्ञानी पुरुष के लिए हम अपना अर्पण करते हैं। इसके सम्पर्क में आकर हम भी 'वेधस्' बन पाते हैं। २. (वैश्वानरज्येष्ठेभ्य:) = सब मनुष्यों के हितकारी प्रभु को ही जो ज्येष्ठ मानते हैं, (तेभ्यः) = उन (अग्निभ्यः) = अग्नणी पुरुषों के लिए (एतत्) = यह (हुतम्, अस्तु) = अर्पण हो। प्रभु-परायण विद्वानों के प्रति अपना अर्पण करते हुए हम भी उन-जैसे ही बनते हैं।

    भावार्थ -

    हम उन विद्वानों के सम्पर्क में रहें जो१. पौष्टिक ओषधियों का ही प्रयोग करते हैं, २. पृथिवी से उत्पन्न वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करते हैं, ३. सोमशक्ति को जीवन का आधार मानते हैं और ४. प्रभु को सर्वश्रेष्ठ जानते हैं।

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