अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
उ॒तो अ॒स्यब॑न्धुकृदु॒तो अ॑सि॒ नु जा॑मि॒कृत्। उ॒तो कृ॑त्या॒कृतः॑ प्र॒जां न॒डमि॒वा च्छि॑न्धि॒ वार्षि॑कम् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒तो इति॑ । अ॒सि॒ । अब॑न्धुऽकृत् । उ॒तो इति॑ । अ॒सि॒ । नु । जा॒मि॒ऽकृत् । उ॒तो इति॑ । कृ॒त्या॒ऽकृत॑: । प्र॒ऽजाम् । न॒डम्ऽइ॑व । आ । छि॒न्धि॒ । वार्षि॑कम् ॥१९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उतो अस्यबन्धुकृदुतो असि नु जामिकृत्। उतो कृत्याकृतः प्रजां नडमिवा च्छिन्धि वार्षिकम् ॥
स्वर रहित पद पाठउतो इति । असि । अबन्धुऽकृत् । उतो इति । असि । नु । जामिऽकृत् । उतो इति । कृत्याऽकृत: । प्रऽजाम् । नडम्ऽइव । आ । छिन्धि । वार्षिकम् ॥१९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
विषय - अबन्धुकृत् जामिकृत्
पदार्थ -
१. हे अपामार्ग! तू (उत उ) = निश्चय से ही (अबन्धु-कृत्) = [शत्रूणां कर्तक:] शत्रुभूत रोगों का छेदन करनेवाला (असि) = है और (नु) = अब (उत उ) = निश्चय ही (जामिकृत् असि) = [जामय: सहजाः] जन्म के साथ होनेवाले रोगों का भी छेदन करनेवाला है। सहज व असहज [कृत्रिम्] सभी रोगों का यह अपामार्ग विनाशक है। २. (उत उ) = निश्चय से (कृत्याकृत:) = हिंसन को पैदा करनेवाले कृमियों की (प्रजाम्) = सन्तानों को इसप्रकार से (छिन्धि) = नष्ट कर डाल (इव) = जैसे (वार्षिकं नडम्) = वर्षाऋतु में उत्पन्न हो जानेवाले तृणविशेषों को छिन्न किया जाता है।
भावार्थ -
अपामार्ग औषधि सहज व कृत्रिम सभी दोषों को दूर करती है और रोगकृमियों के वंश को ही समाप्त कर देती है।
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