अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 8
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
श॒तेन॑ मा॒ परि॑ पाहि स॒हस्रे॑णा॒भि र॑क्ष मा। इन्द्र॑स्ते वीरुधां पत उ॒ग्र ओ॒ज्मान॒मा द॑धत् ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तेन॑ । मा॒ । परि॑। पा॒हि॒ । स॒हस्रे॑ण । अ॒भि । र॒क्ष॒ । मा॒ । इन्द्र॑: । ते॒ । वी॒रु॒धा॒म् । प॒ते॒ । उ॒ग्र: । ओ॒ज्मान॑म् । आ । द॒ध॒त् ॥१९.८॥
स्वर रहित मन्त्र
शतेन मा परि पाहि सहस्रेणाभि रक्ष मा। इन्द्रस्ते वीरुधां पत उग्र ओज्मानमा दधत् ॥
स्वर रहित पद पाठशतेन । मा । परि। पाहि । सहस्रेण । अभि । रक्ष । मा । इन्द्र: । ते । वीरुधाम् । पते । उग्र: । ओज्मानम् । आ । दधत् ॥१९.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 8
विषय - शतेन-सहस्त्रेण
पदार्थ -
१.हे अपामार्ग ! तू (शतेन) = सौ वर्षों से पूर्ण जीवन के हेतु से (मा परिपाहि) = मुझे इन रोगकृमियों की कृत्याओं से बचा। (स-हस्त्रेण)-आनन्दमय जीवन के हेतू से तू (मा अभिरक्ष) = मेरा रक्षण कर। २. हे (वीरुधां पते) = लताओं के स्वामिरूप [मुखिया] अपामार्ग! (उग्रः) = तेजस्वी (इन्द्रः) = प्रभु ने-सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले परमात्मा ने (ते) = तुझमें (ओज्यानम्) = तेजस्विता को (आदधात्) = स्थापित किया है। तेरा तेज रोगकृमियों व रोगों का संहार करनेवाला होता है।
भावार्थ -
अपमार्ग में प्रभु ने उस तेज को स्थापित किया है जो रोग-विनाश द्वारा हमें शतवर्ष का आनन्दमय जीवन प्रास कराता है।
विशेष -
अपमार्ग से व्यक्ति स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मनवाला बनकर 'वेदमाता' के दर्शन करता है। यह वेदमाता इसकी अन्तर्दृष्टि को पवित्र करती है-उसे 'सब लोकों, सब पदार्थों व सब मनुष्यों को समझने की योग्यता प्राप्त कराती है। इस वेदमाता को अपनानेवाला यह व्यक्ति 'मातृनामा' कहलाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -