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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 19

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 6
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    अस॒द्भूम्याः॒ सम॑भव॒त्तद्यामे॑ति म॒हद्व्यचः॑। तद्वै ततो॑ विधूपा॒यत्प्र॒त्यक्क॒र्तार॑मृच्छतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस॑त् । भूम्या॑: । सम् । अ॒भ॒व॒त् । तत् । याम् । ए॒ति॒ । म॒हत् । व्यच॑: । तत् । वै । तत॑: । वि॒ऽधू॒पा॒यत् । प्र॒त्यक् । क॒र्तार॑म् । ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥१९.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असद्भूम्याः समभवत्तद्यामेति महद्व्यचः। तद्वै ततो विधूपायत्प्रत्यक्कर्तारमृच्छतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असत् । भूम्या: । सम् । अभवत् । तत् । याम् । एति । महत् । व्यच: । तत् । वै । तत: । विऽधूपायत् । प्रत्यक् । कर्तारम् । ऋच्छतु ॥१९.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. हे ओषधे! (तत्) = वह (महत् व्यचः) = तेरा सर्वत्र व्याप्त महान् तेज (याम्) = जिस [भूमिम्] शरीररूप पृथिवी को (एति) = प्रास होता है तो (भूम्या:) = उस शरीररूप पृथिवी का रोगजनित हिंसन (असत् समभवत्) = बाधक करनेवाला नहीं होता-वह रोगकृमियों का हिंसनरूप कर्म उस भूमि [शरीर] को पीड़ित नहीं कर पाता। २. (ततः) = वहाँ से-उस हमारे शरीर से (तत्) = वह हिंसनरूप कर्म (वै) = निश्चय से (विधुपायत) = विशेषरूप से सन्तापकारी होता हुआ (कर्तारम्) = उन पीड़ाकर कृमियों को ही प्रत्यक (ऋच्छतु) = लौटकर प्राप्त हो। अपामार्ग के प्रयोग से रोगकृमि हमारे शरीर का हिंसन न करके अपना ही हिंसन करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ -

    अपामार्ग का व्याप्त तेज रोगकृमियों का हिंसन करता है और हमारे शरीर को हिंसन से बचाता है।

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