अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 7
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
प्र॒त्यङ्हि सं॑ब॒भूवि॑थ प्रती॒चीन॑फल॒स्त्वम्। सर्वा॒न्मच्छ॒पथाँ अधि॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒त्यङ् । हि । स॒म्ऽब॒भूवि॑थ । प्र॒ती॒चीन॑ऽफल: । त्वम् । सर्वा॑न् । मत् । श॒पथा॑न् । अधि॑ । वरी॑य: । य॒व॒य॒ । व॒धम् ॥१९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यङ्हि संबभूविथ प्रतीचीनफलस्त्वम्। सर्वान्मच्छपथाँ अधि वरीयो यावया वधम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रत्यङ् । हि । सम्ऽबभूविथ । प्रतीचीनऽफल: । त्वम् । सर्वान् । मत् । शपथान् । अधि । वरीय: । यवय । वधम् ॥१९.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 7
विषय - 'शपथ व वध'-निराकरण
पदार्थ -
१. हे अपामार्ग! (त्वम्) = तू (हि) = निश्चय से (प्रत्यङ्) = हमारी ओर गतिवाला होता हुआ-हमारे अन्दर प्रास होता हुआ (प्रतीचीनफल:) = हमारे विरोधियों का-रोगजनक कृमियों का विशरण [जिफला विशरणे] करनेवाला (संबभूविथ) = होता है। तु हमारे शरीरों में प्रविष्ट होकर सब रोगकृमियों को समाप्त कर देता है। २. तू (मत्) = मुझसे (सर्वान्) = सब (शपथान्) = रोगपीड़ा-जनक आक्रोशों का तथा (वधम्) = रोगजनित हिंसन को (वरीय:) = [उस्तरम्] खूब ही-बहुत ही (अधियावय) = आधिक्येन पृथक् कर । तेरै प्रयोग से न तो हमें रोगजनित पीड़ाएँ प्राप्त हों और न ही यह रोग हमें नष्ट करनेवाला हो।
भावार्थ -
शरीर में पहुँचकर अपामर्ग रोगकृमियों का विनाश कर देता है और हमें रोगजनित पीड़ाओं व बाधाओं से बचाता है।
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