अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
ब्रा॑ह्म॒णेन॒ पर्यु॑क्तासि॒ कण्वे॑न नार्ष॒देन॑। सेने॑वैषि॒ त्विषी॑मती॒ न तत्र॑ भ॒यम॑स्ति॒ यत्र॑ प्रा॒प्नोष्यो॑षधे ॥
स्वर सहित पद पाठब्रा॒ह्म॒णेन॑ । परि॑ऽउक्ता । अ॒सि॒ । कण्वे॑न । ना॒र्ष॒देन॑ । सेना॑ऽइव । ए॒षि॒ । त्विषि॑ऽमती । न । तत्र॑ । भ॒यम् । अ॒स्ति॒ । यत्र॑ । प्र॒ऽआ॒प्नोषि॑ । ओ॒ष॒धे॒ ॥१९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्राह्मणेन पर्युक्तासि कण्वेन नार्षदेन। सेनेवैषि त्विषीमती न तत्र भयमस्ति यत्र प्राप्नोष्योषधे ॥
स्वर रहित पद पाठब्राह्मणेन । परिऽउक्ता । असि । कण्वेन । नार्षदेन । सेनाऽइव । एषि । त्विषिऽमती । न । तत्र । भयम् । अस्ति । यत्र । प्रऽआप्नोषि । ओषधे ॥१९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
विषय - नार्षद-कण्व-उपदिष्ट
पदार्थ -
१. हे अपामार्ग! (नार्षदेन) = मनुष्यों में आसीन होनेवाले-सब मनुष्यों के भले के लिए उनमें स्थित होनेवाले (कण्वेन) = मेधावी (ब्राह्मणेन) = ज्ञानी पुरुष से (पर्युक्ता असि) = तू उपदिष्ट हुई है। तेरा ज्ञान नर-हितकारी ज्ञानी पुरुष द्वारा दिया गया है। २. हे (ओषधे) = दोषों का दहन करनेवाली अपामार्ग ओषधे! तु (त्विषीमती) = दीप्तिवाली (सेना इव एषि) = सेना के समान आती है। जैसे सेना शत्रुओं का सफाया कर देती है, उसी प्रकार तू रोगरूपी शत्रुओं का सफाया करती है। (यत्र) = जहाँ (प्राप्नोषि) = तू प्राप्त होती है (तत्र) = वहाँ (भयं न अस्ति) = रोगों का भय नहीं रहता।
भावार्थ -
मनुष्यों का भला चाहनेवाले मेधावी, ज्ञानी पुरुष से उपदिष्ट होकर प्रयुक्त हुई यह अपामार्ग ओषधि रोग-भय का निवारण कर देती है।
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