अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 3
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
अग्र॑मे॒ष्योष॑धीनां॒ ज्योति॑षेवाभिदी॒पय॑न्। उ॒त त्रा॒तासि॒ पाक॒स्याथो॑ ह॒न्तासि॑ र॒क्षसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअग्र॑म् । ए॒षि॒ । ओष॑धीनाम् । ज्योति॑षाऽइव । अ॒भि॒ऽदी॒पय॑न् । उ॒त । त्रा॒ता । अ॒सि॒ । पाक॑स्य । अथो॒ इति॑ । ह॒न्ता । अ॒सि॒ । र॒क्षस॑: ॥१९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्रमेष्योषधीनां ज्योतिषेवाभिदीपयन्। उत त्रातासि पाकस्याथो हन्तासि रक्षसः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्रम् । एषि । ओषधीनाम् । ज्योतिषाऽइव । अभिऽदीपयन् । उत । त्राता । असि । पाकस्य । अथो इति । हन्ता । असि । रक्षस: ॥१९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
विषय - पाप-त्राण, रक्षो-हनन
पदार्थ -
१. हे अपामार्ग! तू (ज्योतिषा) = अपने तेज से (अभिदीपयन् इव) = रोगकृमिजनित हिंसा-दोषों को दग्ध-सा करता हुआ (ओषधीनाम् अग्रम् एषि) = सब ओषधियों में प्रथम है। २. तू (पाकस्य) = पक्तव्यप्रज्ञ दुर्बल बालक का (त्राता असि) = रक्षक है, (अथ उ) = और निश्चय ही (रक्षस:) = अपने रमण के लिए हमारा क्षय करनेवाले रोगकृमियों का (हन्ता असि) = नष्ट करनेवाला है।
भावार्थ -
रोगकृमियों को नष्ट करता हुआ अपामार्ग ओषधियों का सम्राट् है। यह दुर्बल का रक्षण करता है और रोगकृमियों का विनाश करता है।
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