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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 19

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    वि॑भिन्द॒ती श॒तशा॑खा विभि॒न्दन्नाम॑ ते पि॒ता। प्र॒त्यग्वि भि॑न्धि॒ त्वं तं यो अ॒स्माँ अ॑भि॒दास॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽभि॒न्द॒ती । श॒तऽशा॑खा । वि॒ऽभि॒न्दन् । नाम॑ । ते॒ । पि॒ता । प्र॒त्यक् । वि । भि॒न्धि॒ । त्वम् । तम् । य: । अ॒स्मान् । अ॒भि॒ऽदास॑ति ॥१९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभिन्दती शतशाखा विभिन्दन्नाम ते पिता। प्रत्यग्वि भिन्धि त्वं तं यो अस्माँ अभिदासति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽभिन्दती । शतऽशाखा । विऽभिन्दन् । नाम । ते । पिता । प्रत्यक् । वि । भिन्धि । त्वम् । तम् । य: । अस्मान् । अभिऽदासति ॥१९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १.हे अपामार्ग औषधे! (शतशाखा) = अपरिमित शाखाओंवाली होती हुई त (विभिन्दती) = विभेदनशीला है-रोगों का भेदन करनेवाली है, (ते) = तेरा (पिता) = उत्पादक भी तेरे द्वारा रोगों का भेदन करने के कारण विभिन्दन-विभेदक (नाम) = नामवाला है। २. अत: (त्वम) = तू (तम्) = उस हमारे शत्रुभूत रोग को (प्रत्यग) = उसकी और जाकर [प्रति अञ्च] उसपर आक्रमण करके (भिन्धि) = विदीर्ण कर, (य:) = जो रोग (अस्मान्) = हमें (अभिदासति) = उपक्षीण करता है। हमारा क्षय करनेवाले इन रोगों को तुझे ही नष्ट करना है।

    भावार्थ -

    रोगों का भेदन करनेवाला अपामार्ग "विभिन्दती' है। यह हमारा भेदन करनेवाले रोग का भेदन करता है।

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