अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
सूक्त - बादरायणि
देवता - अजशृङ्ग्योषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
त्वया॒ पूर्व॒मथ॑र्वाणो ज॒घ्नू रक्षां॑स्योषधे। त्वया॑ जघान क॒श्यप॒स्त्वया॒ कण्वो॑ अ॒गस्त्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वया॑ । पूर्व॑म् । अथ॑र्वाण: । ज॒घ्नु: । रक्षां॑सि । ओ॒ष॒धे॒ । त्वया॑ । ज॒घा॒न॒ । क॒श्यप॑: । त्वया॑ । कण्व॑: । अ॒गस्त्य॑: ॥३७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वया पूर्वमथर्वाणो जघ्नू रक्षांस्योषधे। त्वया जघान कश्यपस्त्वया कण्वो अगस्त्यः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वया । पूर्वम् । अथर्वाण: । जघ्नु: । रक्षांसि । ओषधे । त्वया । जघान । कश्यप: । त्वया । कण्व: । अगस्त्य: ॥३७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 1
विषय - अथवा, कश्यप, कण्व, अगस्त्य
पदार्थ -
१. हे (ओषधे) = दोषों का दहन करनेवाली ओषधे! (त्वया) = तेरे द्वारा (पूर्वम्) = सबसे प्रथम (अथर्वाण:) = [न थ] स्थिरवृत्ति के लोग (रक्षांसि) = रोगकृमियों को (जघ्नु:) = नष्ट करते हैं। २. (त्वया) = तेरे द्वारा (कश्यपः) = ज्ञानी पुरुष (जघान) = रोगकृमियों का नाश करता है और (अगस्त्यः) = पाप का संघात [विनाश] करनेवाला व्यक्ति तेरे द्वारा इन कृमियों को विनष्ट करता है।
भावार्थ -
ओषधि द्वारा 'अथर्वा, कश्यप, कण्व व अगस्त्य' रोगकृमियों का विनाश करते हैं। ओषधि का प्रयोग इन लोगों द्वारा ही ठीक से होता है जो स्थिरवृत्ति के हैं, ज्ञानी है, कण कण करके शक्ति का सञ्चय करते हैं व पाप का विनाश करते हैं।
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