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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 37/ मन्त्र 12
    सूक्त - बादरायणिः देवता - अजशृङ्ग्योषधिः छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त

    जा॒या इद्वो॑ अप्स॒रसो॒ गन्ध॑र्वाः॒ पत॑यो यू॒यम्। अप॑ धावतामर्त्या॒ मर्त्या॒न्मा स॑चध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जा॒या: । इत् । व॒: । अ॒प्स॒रस॑: । गन्ध॑र्वा: । पत॑य: । यू॒यम् ।अप॑ । धा॒व॒त॒ । अ॒म॒र्त्या॒: । मर्त्या॑न् । मा । स॒च॒ध्व॒म् ॥३७.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जाया इद्वो अप्सरसो गन्धर्वाः पतयो यूयम्। अप धावतामर्त्या मर्त्यान्मा सचध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जाया: । इत् । व: । अप्सरस: । गन्धर्वा: । पतय: । यूयम् ।अप । धावत । अमर्त्या: । मर्त्यान् । मा । सचध्वम् ॥३७.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 12

    पदार्थ -

    १. हे (गन्धर्वाः) = गायन-सा करनेवाले कृमियो! (अप्सरस:) = जलप्राय स्थानों में विचरनेवाली ये अप्सराएँ-कृमिविशेष (इत) = ही (वः जाया:) = तुम्हारी पत्नियाँ हैं, (यूयम्) = तुम इनके पतयः-पति हो। २.हे (अमा:) = जिनका मारना बड़ा कठिन है, ऐसे कृमियो! (अपधावत) = तुम यहाँ से दूर भाग जाओ, हम (मान्) = मनुष्यों को (मा) = मत (सचध्वम्) = प्रास होओ, हमपर तुम्हारा आक्रमण न हो।

    भावार्थ -

    नर कृमि "गन्धर्व' हैं तो मादा 'अप्सरस्'। इनका मारना आसान नहीं। प्रभु के अनुग्रह से ये कृमि हमसे दूर रहें। हम स्वच्छता आदि की ऐसी व्यवस्था रक्खें कि इन कृमियों का यहाँ उद्भव ही न हो।

    अगले सूक्त का ऋषि भी 'वादरायणि' ही है -

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