अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 37/ मन्त्र 9
सूक्त - बादरायणिः
देवता - अजशृङ्ग्योषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
भी॒मा इन्द्र॑स्य हे॒तयः॑ श॒तं ऋ॒ष्टीर्हि॑र॒ण्ययीः॑। ताभि॑र्हविर॒दान्ग॑न्ध॒र्वान॑वका॒दान्व्यृ॑षतु ॥
स्वर सहित पद पाठभी॒मा: । इन्द्र॑स्य । हे॒तय॑: । श॒तम् । ऋ॒ष्टी: । हि॒र॒ण्ययी॑: ।ताभि॑: । ह॒वि॒:ऽअ॒दान् । ग॒न्ध॒र्वान् । अ॒व॒का॒ऽअ॒दान् । वि । ऋ॒ष॒तु॒ ॥३७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
भीमा इन्द्रस्य हेतयः शतं ऋष्टीर्हिरण्ययीः। ताभिर्हविरदान्गन्धर्वानवकादान्व्यृषतु ॥
स्वर रहित पद पाठभीमा: । इन्द्रस्य । हेतय: । शतम् । ऋष्टी: । हिरण्ययी: ।ताभि: । हवि:ऽअदान् । गन्धर्वान् । अवकाऽअदान् । वि । ऋषतु ॥३७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 9
विषय - चमकती हुई किरणरूप तलवारें
पदार्थ -
१. कृमियों का नाश करनेवाली (इन्द्रस्य) = सूर्य की किरणें (हेतयः) = अस्त्रों के समान हैं। ये (शतम् ऋष्टी:) = सैकड़ों दुधारी तलवारों के समान हैं जोकि (हिरण्ययी:) = स्वर्ण के समान चमक रही है। २. (ताभि:) = उन चमकती हुई किरणरूप तलवारों से (हविरदान्) = अन्न को खा-जानेवाले अबकादान-जलोपरिस्थ शैवाल को भी खा जानेवाले (गन्धर्वान) = इन गायक कृमियों को (व्यूषतु) = यह सूर्य हिंसित करनेवाला हो।
भावार्थ -
चमकती हुई सूर्यकिरणें वे तलवारें हैं जो अन्न तथा शैवाल को खा जानेवाले इन कृमियों को नष्ट कर देती हैं।
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