अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
सूक्त - बादरायणिः
देवता - अप्सराः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - वाजिनीवान् ऋषभ सूक्त
वि॑चिन्व॒तीमा॑कि॒रन्ती॑मप्स॒रां सा॑धुदे॒विनी॑म्। ग्लहे॑ कृ॒तानि॑ गृह्णा॒नाम॑प्स॒रां तामि॒ह हु॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽचि॒न्व॒तीम् । आ॒ऽकि॒रन्ती॑म् । अ॒प्स॒राम् । सा॒धु॒ऽदे॒विनी॑म् । ग्लहे॑ । कृ॒तानि॑ । गृ॒ह्णा॒नाम् । अ॒प्स॒राम् । ताम् । इ॒ह । हु॒वे॒ ॥३८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
विचिन्वतीमाकिरन्तीमप्सरां साधुदेविनीम्। ग्लहे कृतानि गृह्णानामप्सरां तामिह हुवे ॥
स्वर रहित पद पाठविऽचिन्वतीम् । आऽकिरन्तीम् । अप्सराम् । साधुऽदेविनीम् । ग्लहे । कृतानि । गृह्णानाम् । अप्सराम् । ताम् । इह । हुवे ॥३८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 2
विषय - विचिन्बती-आकिरन्ती
पदार्थ -
१. (इह) = इस घर में (ताम्) = क्रियाओं में विचरण करनेवाली गृहिणी को (हुवे) = पुकारता हूँ जोकि (विचिन्वन्तीम्) = धन का सञ्चय करनेवाली है और (आकिरन्तीम्) = सञ्चित धन को यज्ञात्मक विविध कर्मों के लिए विकीर्ण करनेवाली है, (साभुदेविनीम्) = उत्तम व्यवहारवाली है-कार्यों को कुशलता से करनेवाली है। २. (ग्लहे) = घर को उत्तम बनाने की स्पर्धा में यह गृहिणी कृतानि (गृहानाम्) = उत्तम कर्मों का स्वीकार करनेवाली है और (अप्सराम्) = सदा क्रियाओं में विचरनेवाली आलस्यशून्य है।
भावार्थ -
उत्तम पत्नी की विशेषता यह है कि वह १. धनों का सञ्चय करती है, पति के कमाये गये धन को जोड़ती है, २. उसका यज्ञात्मक कर्मों में विनियोग करती है, ३. क्रियाशील है-सदा उत्तम व्यवहारवाली है और ४. घर को उत्तम बनाने की स्पर्धा में उत्तम कर्मों का स्वीकार करती है।
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