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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 38

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 5
    सूक्त - बादरायणिः देवता - वाजिनीवान् ऋषभः छन्दः - भुरिगत्यष्टिः सूक्तम् - वाजिनीवान् ऋषभ सूक्त

    सूर्य॑स्य र॒श्मीननु॒ याः स॒ञ्चर॑न्ति॒ मरी॑चीर्वा॒ या अ॑नुस॒ञ्चर॑न्ति। यासा॑मृष॒भो दू॑र॒तो वा॒जिनी॑वान्त्स॒द्यः सर्वा॑न्लो॒कान्प॒र्येति॒ रक्ष॑न्। स न॒ ऐतु॒ होम॑मि॒मं जु॑षाणो॑३ऽन्तरि॑क्षेण स॒ह वा॒जिनी॑वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑स्य । र॒श्मीन् । अनु॑ । या: । स॒म्ऽचर॑न्ति । मरी॑ची: । वा॒ । या: । अ॒नु॒ऽसं॒चर॑न्ति । यासा॑म् । ऋ॒ष॒भ: । दू॒र॒त: । वा॒जिनी॑ऽवान् । स॒द्य: । सर्वा॑न् । लो॒कान् । प॒रि॒ऽएति॑ । रक्ष॑न् । स: । न॒: । आ । ए॒तु॒ । होम॑म् । इ॒मम् । जु॒षा॒ण: । अ॒न्तरि॑क्षेण । स॒ह । वा॒जिनी॑ऽवान् ॥३८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यस्य रश्मीननु याः सञ्चरन्ति मरीचीर्वा या अनुसञ्चरन्ति। यासामृषभो दूरतो वाजिनीवान्त्सद्यः सर्वान्लोकान्पर्येति रक्षन्। स न ऐतु होममिमं जुषाणो३ऽन्तरिक्षेण सह वाजिनीवान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्यस्य । रश्मीन् । अनु । या: । सम्ऽचरन्ति । मरीची: । वा । या: । अनुऽसंचरन्ति । यासाम् । ऋषभ: । दूरत: । वाजिनीऽवान् । सद्य: । सर्वान् । लोकान् । परिऽएति । रक्षन् । स: । न: । आ । एतु । होमम् । इमम् । जुषाण: । अन्तरिक्षेण । सह । वाजिनीऽवान् ॥३८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

     

    १. गृहिणियाँ वे ही उत्तम हैं (याः) = जो (सूर्यस्य रश्मीननु सञ्चरन्ति) = सूर्य की रश्मियों के अनुसार सञ्चरण करती है, अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक कार्यों में लगी रहती हैं, (वा) = तथा (या:) = जो (मरीची:) = सूर्यप्रकाश में (अनुसञ्चरन्ति) = अनुकूलता से सञ्चरण करती है-अंधरे कमरों में नहीं बैठी रहतीं। २. (यासाम्) = जिनका (ऋषभ:) = सेचन-समर्थ-सन्तान को जन्म देने की सामर्थ्यवाला श्रेष्ठ पति (दूरत: वाजिनीवान) = [वाजिनी-उषा] दूर से उषावाला है, अर्थात् उषाकाल से भी पहले ही [Early in the morning] प्रबुद्ध होनेवाला है। यह ऋषभ (सद्यः) = शीघ्र ही (सर्वान् लोकान्) = सब लोगों का (रक्षन्) = रक्षण करता हुआ (परिएति) = चारों ओर गति करता है-अपने सब कर्त्तव्यकों का सम्यक् पालन करता है। ३. पत्नी कामना करती है कि (सः) = वह गृहपति (न:) = हम गृहिणियों को (आ एत) = सर्वथा प्रास हो, जो (इमं होम जुषाण:) = इस यज्ञ को प्रतिदिन प्रीतिपूर्वक करनेवाला हो [पत्युनों यज्ञसंयोगे], जोकि (अन्तरिक्षण सह) = अन्तरिक्ष के साथ, अर्थात् सदा मध्यमार्ग में चलता हुआ (वाजिनीवान) = प्रशस्त उषावाला है। पति का कर्तव्य है कि अति में न जाता हुआ-कायों को मर्यादा में करता हुआ-उषाकाल में प्रबुद्ध हो।

    भावार्थ -

    वही घर स्वर्ग बनता है जहाँ पत्नी [क] सूर्योदय से सूर्यास्त तक क्रियाशील हो, [ख] अँधेरे कमरे में न बैठी रहकर सूर्यप्रकाश में अपने कार्य को करती हुई स्वस्थ हो। इस स्वर्गतुल्य गृह में पति शक्तिशाली होता है, रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त होता है, यज्ञशील बनता है, मध्यमार्ग में चलता हुआ उषा में प्रबुद्ध होनेवाला यह गृहपति मर्यादित जीवनवाला होता है।

     

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