अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 4
सूक्त - बादरायणिः
देवता - अप्सराः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - वाजिनीवान् ऋषभ सूक्त
या अ॒क्षेषु॑ प्र॒मोद॑न्ते॒ शुचं॒ क्रोधं॑ च॒ बिभ्र॑ती। आ॑न॒न्दिनीं॑ प्रमो॒दिनी॑मप्स॒रां तामि॒ह हु॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठया: । अ॒क्षेषु॑ । प्र॒ऽमोद॑न्ते । शुच॑म् । क्रोध॑म् । च॒ । बिभ्र॑ती । आ॒ऽन॒न्दिनी॑म् । प्र॒ऽमो॒दिनी॑म् । अ॒प्स॒राम् । ताम् । इ॒ह । हु॒वे॒ ॥३८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
या अक्षेषु प्रमोदन्ते शुचं क्रोधं च बिभ्रती। आनन्दिनीं प्रमोदिनीमप्सरां तामिह हुवे ॥
स्वर रहित पद पाठया: । अक्षेषु । प्रऽमोदन्ते । शुचम् । क्रोधम् । च । बिभ्रती । आऽनन्दिनीम् । प्रऽमोदिनीम् । अप्सराम् । ताम् । इह । हुवे ॥३८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 4
विषय - शुचं क्रोधं च बिभ्रती
पदार्थ -
१. (ताम्) = उस (अप्सराम्) = गृहकार्यों में प्रवृत्त होनेवाली सुन्दर पत्नी को (इह) = यहाँ-गृहों में (हुवे) = पुकारते हैं (या:) = जो (अक्षेषु प्रमोदन्ते) = इन्द्रियों में सदा प्रमोदवाली हैं-सदा प्रसन्न मुख हैं, (शचम्) = शोक को (च) = और (क्रोधम्) = क्रोध को (बिभ्रती) = धारण करती हुई-अपने वश में करनेवाली होती है-क्रोध इसे धारण नहीं कर लेता। २. (आनन्दिनीम्) = जो घर में सभी को अपने यथायोग्य व्यवहार से आनन्दित करनेवाली है तथा (प्रमोदिनीम्) = सदा प्रहष्टा है।
भावार्थ -
त्नी वही उत्तम है जोकि [क] प्रसन्नमुख है, [ख] शोक व क्रोध को वशीभूत करती है, [ग] अपने यथोचित व्यवहार से सबको प्रसन्न करनेवाली है, [घ] प्रसनचित्त और क्रियाशील है।
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