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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 38

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 6
    सूक्त - बादरायणिः देवता - वाजिनीवान् ऋषभः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - वाजिनीवान् ऋषभ सूक्त

    अ॒न्तरि॑क्षेण स॒ह वा॑जिनीवन्क॒र्कीं व॒त्सामि॒ह र॑क्ष वाजिन्। इ॒मे ते॑ स्तो॒का ब॑हु॒ला एह्य॒र्वाङि॒यं ते॑ क॒र्कीह ते॒ मनो॑ऽस्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्तरि॑क्षेण । स॒ह । वा॒जि॒नी॒ऽव॒न् । क॒र्कीम् । व॒त्साम् । इ॒ह । र॒क्ष॒ । वा॒जि॒न् । इ॒मे । ते॒ । स्तो॒का: । ब॒हु॒ला: । आ । इ॒हि॒ । अ॒र्वाङ् । इ॒यम् । ते॒ । क॒र्की । इ॒ह । ते॒ । मन॑: । अ॒स्तु॒ ॥३८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तरिक्षेण सह वाजिनीवन्कर्कीं वत्सामिह रक्ष वाजिन्। इमे ते स्तोका बहुला एह्यर्वाङियं ते कर्कीह ते मनोऽस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्तरिक्षेण । सह । वाजिनीऽवन् । कर्कीम् । वत्साम् । इह । रक्ष । वाजिन् । इमे । ते । स्तोका: । बहुला: । आ । इहि । अर्वाङ् । इयम् । ते । कर्की । इह । ते । मन: । अस्तु ॥३८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. पत्नी पति से कहती है कि हे (वाजिनीवन) = प्रशस्त उषावाले (वाजिन्) = बलवाले-उषा में प्रबुद्ध होनेवाले सबल पते! (अन्तरिक्षेण सह) = सदा मध्यमार्ग में चलने के साथ, अर्थात् मर्यादित जीवनवाला होते हुए (इह) = इस गृहस्थजीवन में अपनी (कर्कीम्) = शुद्ध जीवनवाली [श्वेत घोड़ी] की भाँति शुद्ध, पवित्र व क्रियाशील (वत्साम्) = प्रिय व प्रात: प्रबुद्ध होने पर प्रभु-स्तोत्रों का उच्चारण करनेवाली [वदति] इस पत्नी का (रक्ष) = तू रक्षण करनेवाला है। २. (इमे) = ये (ते) = तेरे (स्तोका) = [खुच् घञ् स्तोचते to be light, to shine] दीप्त-[शानदार]-कर्म (बहुला:) = बहुत समृद्धियों को प्राप्त करानेवाले हों। तू यहाँ (अर्वाङ् एहि) = घर की ओर ही आनेवाला हो–क्लब आदि में जानेवाला न बन जाए। (इयम्) = यह (ते) = तेरी की-शुद्ध, क्रियाशील पत्नी है। (इह) = यहाँ घर में ही ते (मनः अस्तु) = तेरा मन हो। तेरे लिए घर का वातावरण मनःप्रसाद देनेवाला हो।

    भावार्थ -

    पत्नी चाहती है कि उसका पति [क] मर्यादित जीवनवाला हो, [ख] उषा में प्रबुद्ध होनेवाला हो [ग] वस्तुत: गृहरक्षक हो, [घ] शुद्ध कर्मों से गृह को समृद्ध करनेवाला हो-घर में अशुद्ध कमाई न आये, [ङ] घर का वातावरण उसके लिए मनःप्रसाद-जनक हो क्लब-लाइफ़वाला न हो।

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