अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषनाशन सूक्त
द॒दिर्हि मह्यं॒ वरु॑णो दि॒वः क॒विर्वचो॑भिरु॒ग्रैर्नि रि॑णामि ते वि॒षम्। खा॒तमखा॑तमु॒त स॒क्तम॑ग्रभ॒मिरे॑व॒ धन्व॒न्नि ज॑जास ते वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठद॒दि: । हि । मह्य॑म् । वरु॑ण: । दि॒व: । क॒वि: । वच॑:ऽभि: । उ॒ग्रै: । नि । रि॒णा॒मि॒ । ते॒ । वि॒षम् । खा॒तम् । अखा॑तम् । उ॒त । स॒क्तम् । अ॒ग्र॒भ॒म् । इरा॑ऽइव । धन्व॑न् । नि । ज॒जा॒स॒ । ते॒ । वि॒षम् ॥१३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ददिर्हि मह्यं वरुणो दिवः कविर्वचोभिरुग्रैर्नि रिणामि ते विषम्। खातमखातमुत सक्तमग्रभमिरेव धन्वन्नि जजास ते विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठददि: । हि । मह्यम् । वरुण: । दिव: । कवि: । वच:ऽभि: । उग्रै: । नि । रिणामि । ते । विषम् । खातम् । अखातम् । उत । सक्तम् । अग्रभम् । इराऽइव । धन्वन् । नि । जजास । ते । विषम् ॥१३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
विषय - विष-निवारण
पदार्थ -
१. (दिवः कविः) = ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करनेवाले, (वरुण:) = सब कष्टों के निवारक प्रभु ने (हि) = निश्चय से (महाम्) = मुझे (ददि:) = यह जान दिया है, (उग्रैः वचोभिः) = इन तेजस्वी वचनों से (ते विषम्) = तेरे विष को (निरिणामि) = दूर किये देता हूँ। सर्पविष से मूर्छा आने लगती है। उग्न वचनों से जहाँ सर्पदष्ट व्यक्ति को उत्साहित करना होता है, वहाँ उसे मूर्छित न होने देने के लिए भी ये वचन उपयोगी होते हैं। २. (खातम्) = घाव अधिक खुदा हुआ हो, (अखताम्) = न खुदा हुआ हो (उत) = अथवा (सक्तम्) = विष केवल ऊपर ही चिपका हुआ हो, उस सब विष को (अग्रभम्) = मैं लिये लेता हूँ-बाहर कर देता हूँ। (धन्वन् इरा इब) = रेतीले स्थानों में जैसे जलधारा नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार (ते विषं निजजास) = तेरा विष भी नि:शेष नष्ट होता है।
भावार्थ -
प्रभु ने वेद में विष-निवारण के उपायों का प्रतिपादन किया है। एक विष चिकित्सक तेजस्वी वचनों से सर्पदष्ट पुरुष को मूर्च्छित न होने देता हुआ उसके विष को दूर करने का प्रयत्न करता है।
इस भाष्य को एडिट करें