अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - सर्पविषनाशन सूक्त
यत्ते॒ अपो॑दकं वि॒षं तत्त॑ ए॒तास्व॑ग्रभम्। गृ॒ह्णामि॑ ते मध्य॒ममु॑त्त॒मं रस॑मु॒ताव॒मं भि॒यसा॑ नेश॒दादु॑ ते ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । अप॑ऽउदकम् । वि॒षम् । तत् । ते॒ । ए॒तासु॑ । अ॒ग्र॒भ॒म् । गृ॒ह्णामि॑ । ते॒ । म॒ध्य॒मम् । उ॒त्ऽत॒मम् । रस॑म् । उ॒त । अ॒व॒मम् । भि॒यसा॑ । ने॒श॒त् । आत् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ ॥१३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते अपोदकं विषं तत्त एतास्वग्रभम्। गृह्णामि ते मध्यममुत्तमं रसमुतावमं भियसा नेशदादु ते ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । अपऽउदकम् । विषम् । तत् । ते । एतासु । अग्रभम् । गृह्णामि । ते । मध्यमम् । उत्ऽतमम् । रसम् । उत । अवमम् । भियसा । नेशत् । आत् । ऊं इति । ते ॥१३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
विषय - विष की रुधिरशोषकता
पदार्थ -
१. हे सर्प! (यत्) = जो (ते) = तेरा (अप उदकम्) = [जल से रहित] रुधिर को सुखा देनेवाला (विषम्) = विष है, (ते) = तेरे (तत्) = उस विष को (एतासु अग्रभम्) = इन नाड़ियों में पकड़ लेता हूँ। इसे इसप्रकार बाँध-सा देता हूँ कि यह सारे शरीर में फैल न जाए। २. मैं (ते) = तेरे (उत्तमं मध्यमम् उत अवमं रसम्) = प्रबल, मध्यम व निचली कोटि के, अर्थात् सामान्य विष को भी गृहामि-वश में करने का प्रयत्न करता हूँ। (आत् उ) = अब निश्चय से (ते) = तेरे (भियसा) = भय से भी (नेशत्) = मनुष्य नष्ट हो जाता है, अतः मैं तेरे नाममात्र अंश को भी दूर करने का प्रयत्न करता हूँ।
भावार्थ -
सर्पविष रुधिर का शोषण कर देता है। इसे नाड़ियों में जहाँ-का तहाँ रोकने का प्रयत्न किया जाए। यह सारे शरीर में फैल न जाए। अब इसे शरीर से बाहर निकालने का यत्न किया जाए। इसके थोड़े-से अंश के भी शरीर में रह जाने से विनाश का भय होता है।
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