अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 13/ मन्त्र 3
वृषा॑ मे॒ रवो॒ नभ॑सा॒ न त॑न्य॒तुरु॒ग्रेण॑ ते॒ वच॑सा बाध॒ आदु॑ ते। अ॒हं तम॑स्य॒ नृभि॑रग्रभं॒ रसं॒ तम॑स इव॒ ज्योति॒रुदे॑तु॒ सूर्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ । मे॒ । रव॑: । नभ॑सा । न । त॒न्य॒तु: । उ॒ग्रेण॑ । ते॒ । वच॑सा । बा॒धे॒ । आत् ।ऊं॒ इति॑ । ते॒ । अ॒हम् । तम् । अ॒स्य॒ । नृऽभि॑: । अ॒ग्र॒भ॒म् । रस॑म् । तम॑स:ऽइव । ज्योति॑:। उत् । ए॒तु॒ । सूर्य॑: ॥१३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा मे रवो नभसा न तन्यतुरुग्रेण ते वचसा बाध आदु ते। अहं तमस्य नृभिरग्रभं रसं तमस इव ज्योतिरुदेतु सूर्यः ॥
स्वर रहित पद पाठवृषा । मे । रव: । नभसा । न । तन्यतु: । उग्रेण । ते । वचसा । बाधे । आत् ।ऊं इति । ते । अहम् । तम् । अस्य । नृऽभि: । अग्रभम् । रसम् । तमस:ऽइव । ज्योति:। उत् । एतु । सूर्य: ॥१३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
विषय - विष-चिकित्सा में उच्च शब्द का स्थान
पदार्थ -
१. मे (रव:) = मेरा शब्द (नभसा तन्यतुः न) = मेघ से उत्पन्न होनेवाली गर्जना के समान वृषा-शक्तिशाली है। मैं इस (उग्रेण वचसा) = शक्तिशाली शब्द से (ते) = तेरे इस विष को (बाधे) = बाधित करता हूँ, (आत् उ) = और अब निश्चय से (ते) = तेरा भी बाधन करता हूँ। २. (अहम्) = मैं (नृभिः) = मनुष्यों के साथ (अस्य) = इस सर्प के (तं रसम्) = उस विषरस को (अग्रभम्) = वश में कर लेता है। (तमसः ज्योतिः इव) = अन्धकार के विनाश से जैसे ज्योति का उदय होता है, उसी प्रकार इस सर्पदष्ट पुरुष के जीवन में भी विषान्धकार के विनाश के साथ (सूर्यः उदेतु) = जीवन के सूर्य का उदय हो।
भावार्थ -
सर्पविष चिकित्सा में ऊँचे शब्द का भी महत्व है। यह सर्पदष्ट को मूर्छा में चले जाने से बचाता है। चिकित्सक अन्य मनुष्यों के साथ सर्पविष के भय को दूर करने का प्रयत्न करता है तथा सर्पदष्ट मनुष्य के जीवन से मूर्छान्धकार को दूर करके जीवन के सूर्य को उदित करता है।
इस भाष्य को एडिट करें