अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 13/ मन्त्र 7
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषनाशन सूक्त
आलि॑गी च॒ विलि॑गी च पि॒ता च॑ म॒ता च॑। वि॒द्म वः॑ स॒र्वतो॒ बन्ध्वर॑साः॒ किं क॑रिष्यथ ॥
स्वर सहित पद पाठआऽलि॑गी । च॒ । विऽलि॑गी । च॒ । पि॒ता । च॒ । मा॒ता । च॒ । वि॒द्म । व॒: । स॒र्वत॑: । बन्धु॑। अर॑सा: । किम् । क॒रि॒ष्य॒थ॒ ॥१३.७॥
स्वर रहित मन्त्र
आलिगी च विलिगी च पिता च मता च। विद्म वः सर्वतो बन्ध्वरसाः किं करिष्यथ ॥
स्वर रहित पद पाठआऽलिगी । च । विऽलिगी । च । पिता । च । माता । च । विद्म । व: । सर्वत: । बन्धु। अरसा: । किम् । करिष्यथ ॥१३.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 13; मन्त्र » 7
विषय - आलिगी व विलिगी की बन्धनशक्ति
पदार्थ -
१. (आलिगी) = चारों ओर घूमनेवाली (च) = और विलिगी (च) = टेढ़ी चालवाली सर्पिणी (पिता च माता च) = चाहे वह नर है, चाहे मादा हम (वः) = तुम्हारे (बन्धुः) = बन्धन को (सर्वत:) = सब प्रकार से (विद्म) = जानते हैं। किस प्रकार तुम लिपट जाती हो, वह हम समझते हैं। २. अत: (अरसा:) = हमारे लिए नि:सार होती हुई तुम (किं करिष्यथ) = क्या करोगी? तु हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
भावार्थ -
हम सपो की बन्धन-शक्ति को समझें और अपने लिए उन्हें नि:सार करनेवाले हों। उनके बन्धन को हम सरलता से पृथक् कर सकें।
इस भाष्य को एडिट करें