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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 10
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यापरिहरणम् छन्दः - निचृद्बृहती सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त

    पु॒त्र इ॑व पि॒तरं॑ गच्छ स्व॒ज इ॑वा॒भिष्ठि॑तो दश। ब॒न्धमि॑वावक्रा॒मी ग॑च्छ॒ कृत्ये॑ कृत्या॒कृतं॒ पुनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒त्र:ऽइ॑व । पि॒तर॑म् । ग॒च्छ॒ । स्व॒ज:ऽइ॑व । अ॒भिऽस्थि॑त: । द॒श॒ । ब॒न्धम्ऽइ॑व । अ॒व॒ऽक्रा॒मी । ग॒च्छ॒ । कृत्ये॑ । कृ॒त्या॒ऽकृत॑म् । पुन॑: ॥१४.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुत्र इव पितरं गच्छ स्वज इवाभिष्ठितो दश। बन्धमिवावक्रामी गच्छ कृत्ये कृत्याकृतं पुनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुत्र:ऽइव । पितरम् । गच्छ । स्वज:ऽइव । अभिऽस्थित: । दश । बन्धम्ऽइव । अवऽक्रामी । गच्छ । कृत्ये । कृत्याऽकृतम् । पुन: ॥१४.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 10

    पदार्थ -

    १. हे (कृत्ये) = छेदन-भेदन की क्रिये! तू (कृत्याकृतं पुन:) = गच्छ कृत्या करनेवाले को पुनः इसप्रकार प्राप्त हो (इव) = जैसेकि (पुत्र: पितरम्) = पुत्र पिता की ओर जाता है। हे कृत्ये! तू कृत्याकृत् की ओर (गच्छ) = जा। तू इस कृत्याकृत को इसप्रकार (दश) = डसनेवाली हो, (इव) = जैसेकि (अभिष्ठितः) = पाँव से आक्रान्त (स्वजः) = लिपट जानेवाला सर्प डसता है [प्वज]। २. हे कृत्ये! तू इसप्रकार कृत्याकृत के पास पुनः (गच्छ) = जा, (इव) = जैसे (बन्धम् अवक्रामी) = बन्धन को [उल्लंघ्य प्रतिगामी] तोड़कर जानेवाला इष्ट स्थान पर जाता है।

    भावार्थ -

    पुत्र पिता को प्राप्त होता ही है, पादाक्रान्त सर्प काटता ही है, बन्धन को तुड़ाकर प्राणी इष्ट स्थान की ओर जाता ही है, इसीप्रकार कृत्या कृत्याकृत् को प्राप्त होती ही है ।

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