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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 9
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यापरिहरणम् छन्दः - त्रिपदा विराडनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त

    कृत॑व्यधनि॒ विद्य॒ तं यश्च॒कार॒ तमिज्ज॑हि। न त्वामच॑क्रुषे व॒यं व॒धाय॒ सं शि॑शीमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृत॑ऽव्यधनि । विध्य॑ । तम् । य: । च॒कार॑ । तम् । इत् । ज॒हि॒ । न । त्वाम् । अच॑क्रुषे । व॒यम् । व॒धाय॑ । सम् । शि॒शी॒म॒हि॒ ॥१४.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृतव्यधनि विद्य तं यश्चकार तमिज्जहि। न त्वामचक्रुषे वयं वधाय सं शिशीमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृतऽव्यधनि । विध्य । तम् । य: । चकार । तम् । इत् । जहि । न । त्वाम् । अचक्रुषे । वयम् । वधाय । सम् । शिशीमहि ॥१४.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 9

    पदार्थ -

    १. (कृतव्यनि) = [कृतानि व्यधनानि यया] जिसने शत्रु-विनाश के लिए आयुध तैयार किये हुए हैं, ऐसी सेने! (य: चकार) = जो राष्ट्र पर आक्रमण करता है, (तम्) = उसे तू (विध्य) = अपने अस्त्रों से विद्ध कर। (इत्) = उसे ही (जहि) = विनष्ट कर। २. (अचक्रुषे) = आक्रमण न करनेवाले के लिए (वयम्) = हम (त्वाम्) = मुझे (वधाय) = वध के लिए (न संशिशीमहि) = नहीं उत्तेजित करते-तीक्ष्ण नहीं बनाते।

    भावार्थ -

    हम सेनाओं द्वारा आक्रान्ता के आक्रमणो को रोकने के लिए ही यत्नशील हों, अनाक्रमकों पर स्वयं आक्रमण न करने लगे।

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