अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 13
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यापरिहरणम्
छन्दः - स्वराडनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त
अ॒ग्निरि॑वैतु प्रति॒कूल॑मनु॒कूल॑मिवोद॒कम्। सु॒खो रथ॑ इव वर्ततां कृ॒त्या कृ॑त्या॒कृतं॒ पुनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि:ऽइ॑व । ए॒तु॒ । प्र॒ति॒ऽकूल॑म् । अ॒नु॒कूल॑म्ऽइव । उ॒द॒कम् । सु॒ख: । रथ॑:ऽइव । व॒र्त॒ता॒म् । कृ॒त्या । कृ॒त्या॒ऽकृत॑म् । पुन॑: ॥१४.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निरिवैतु प्रतिकूलमनुकूलमिवोदकम्। सुखो रथ इव वर्ततां कृत्या कृत्याकृतं पुनः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि:ऽइव । एतु । प्रतिऽकूलम् । अनुकूलम्ऽइव । उदकम् । सुख: । रथ:ऽइव । वर्तताम् । कृत्या । कृत्याऽकृतम् । पुन: ॥१४.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 13
विषय - अग्नि: इव, उदकम् इव
पदार्थ -
१. यह (कृत्या) = छेदन-भेदन की क्रिया (प्रतिकूलम्) = हमारे विरोधी को (अग्निः इव एतु) = अग्नि के समान प्राप्त हो-यह उसे जलानेवाली हो, परन्तु यही (कृत्या अनुकूलम्) = हमारे अनुकूल को (उदकम् इव) = पानी की भाँति प्राप्त हो-उसे यह विनष्ट न कर सके। २. (सुख:) = उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला यह शरीर (रथः इव) = जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए रथ के समान हो। (कृत्या) = विनाश की क्रिया (कृत्याकृतम्) = विनाशक को ही (पुनः) = फिर (वर्तताम्) = प्राप्त हो। यह उसी का विनाश करनेवाली बने।
भावार्थ -
कृत्या प्रतिकूल व्यक्ति को अग्नि की भाँति प्राप्त हो, अनुकूल व्यक्तियों के लिए यह जल के समान हो जाए। इन कृत्याओं से बचे रहकर हम अपने शरीर-रथ को उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला बनाएँ।
विशेष -
सब प्रकार की हिंसा की भावनाओं को दूर करनेवाला पुरुष विश्वामित्र है। यही अगले दो सूक्तों का ऋषि है।