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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 7
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यापरिहरणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त

    यदि॒ वासि॑ दे॒वकृ॑ता॒ यदि॑ वा॒ पुरु॑षैः कृ॒ता। तां त्वा॒ पुन॑र्णयाम॒सीन्द्रे॑ण स॒युजा॑ व॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । वा॒ । असि॑ । दे॒वऽकृ॑ता । यदि॑ । वा॒ । पुरु॑षै: । कृ॒ता । ताम् । त्वा॒ । पुन॑: । न॒या॒म॒सि॒ । इन्द्रे॑ण । स॒ऽयुजा॑ । व॒यम् ॥१४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदि वासि देवकृता यदि वा पुरुषैः कृता। तां त्वा पुनर्णयामसीन्द्रेण सयुजा वयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि । वा । असि । देवऽकृता । यदि । वा । पुरुषै: । कृता । ताम् । त्वा । पुन: । नयामसि । इन्द्रेण । सऽयुजा । वयम् ॥१४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. (यदि वा देवकृता असि) = यदि कोई विपत्ति देवकृत है, अर्थात् अतिवृष्टि व अनावृष्टि आदि के कारण कृषि आदि न होने का कष्ट आया है, (यदि वा) = अथवा यदि कोई कष्ट (पुरुषैः कृता) = पुरुषों से किया गया है, (तां स्वा) = उस तुझ आधिदैविक व आधिभौतिक कष्ट को इन्द्रेण (सयुजा वयम्) = प्रभु के साथ मिलकर अथवा राजा के साथ मिलकर हम (पुनः नयामसि) = फिर दूर ले-जाते हैं। २. प्रभु की उपासना करते हुए हम अपने को आधिदैविक व आधिभौतिक कष्टों से बचाने में समर्थ हों। इसीप्रकार राजा की सहायता से राजा को पूर्ण सहयोग देते हुए हम इन कष्टों को दूर करने के लिए यत्नशील हों।

    भावार्थ -

    प्रभु-स्मरण के साथ राष्ट्र में राजा को पूर्ण सहयोग देते हुए हम आधिदैविक व आधिभौतिक कष्टों को दूर करने के लिए यत्नशील हों ।

     

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