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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 11
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्याप्रतिहरणम् छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त

    यश्च॒कार॒ न श॒शाक॒ कर्तुं॑ श॒श्रे पाद॑म॒ङ्गुरि॑म्। च॒कार॑ भ॒द्रम॒स्मभ्य॑मभ॒गो भग॑वद्भ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । च॒कार॑ । न । श॒शाक॑ । कर्तु॑म् । श॒श्रे । पाद॑म् । अ॒ङ्गुरि॑न् । च॒कार॑ । भ॒द्रम् । अ॒स्मभ्य॑म् । अ॒भ॒ग: । भग॑वत्ऽभ्य: ॥३१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यश्चकार न शशाक कर्तुं शश्रे पादमङ्गुरिम्। चकार भद्रमस्मभ्यमभगो भगवद्भ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । चकार । न । शशाक । कर्तुम् । शश्रे । पादम् । अङ्गुरिन् । चकार । भद्रम् । अस्मभ्यम् । अभग: । भगवत्ऽभ्य: ॥३१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 11

    पदार्थ -

    १. (य:) = जो (चकार) = हिंसा करता है वह (कर्तुं न शशाक) = हिंसा कर नहीं सका, अपने ही (पादम् अंगरिम) = पाँव व अंगुली को (शश्रे) = उसने शीर्ण कर लिया। २. वह (अभगः) = अभागा (भगवद्भ्यः अस्मभ्यम्) = सौभाग्यशाली हम लोगों के लिए तो (भद्रं चकार) = कल्याण करनेवाला ही हुआ। वस्तुत: उसने हमें हिंसा में न घबराने व प्रसन्न रह सकने के अभ्यास का अवसर ही दिया।

    भावार्थ -

    न 'पापे प्रति पापः स्यात्' के अनुसार हम हिंसक की हिंसा करनेवाले न हों। हिंसकों को राजदण्ड ही हिंसा से रोकनेवाला हो।

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