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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 6
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्याप्रतिहरणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त

    यां ते॑ च॒क्रुः स॒भायां॒ यां च॒क्रुर॑धि॒देव॑ने। अ॒क्षेषु॑ कृ॒त्यां यां च॒क्रुः पुनः॒ प्रति॑ हरामि॒ ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । ते॒ । च॒क्रु: । स॒भाया॑म् । याम् । च॒क्रु: । अ॒धि॒ऽदेव॑ने । अ॒क्षेषु॑ । कृ॒त्याम् । याम् । च॒क्रु: । पुन॑: । प्रति॑ । ह॒रा॒मि॒ । ताम् ॥३१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यां ते चक्रुः सभायां यां चक्रुरधिदेवने। अक्षेषु कृत्यां यां चक्रुः पुनः प्रति हरामि ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । ते । चक्रु: । सभायाम् । याम् । चक्रु: । अधिऽदेवने । अक्षेषु । कृत्याम् । याम् । चक्रु: । पुन: । प्रति । हरामि । ताम् ॥३१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १.(याम्) = जिस हिंसा के कार्य को (ते) = वे शत्रु (सभायां चक्रुः) = सभा में करते हैं, संसद् के विषय में जिस घातपात की क्रिया को करते हैं [संसद् भवन को ही बारूद आदि से उड़ाने की सोचते हैं], (याम्) = जिस कृत्या को (अधिदेवने) = तेरी क्रीड़ा के स्थल उपवन आदि में (चक्रुः) = करते हैं, (या कृत्याम्) = जिस छेदन-भेदन के कार्य को (अक्षेषु) = व्यवहारों में करते हैं, (ताम्) = उस सब हिंसन-क्रिया को (पुनः) = फिर (प्रतिहरामि) = वापस उन्हीं को प्राप्त कराता हूँ। २. (याम्) = जिस हिंसन-क्रिया को (ते) = वे शत्रु (सेनायां चक्रुः) = सेना के विषय में करते हैं-सेना में असन्तोष आदि फैलाने का प्रयत्न करते है, (याम्) = जिस कृत्या को (इषु आयुधे) = बाण आदि अस्त्रों के विषय में (चक्रुः) = करते हैं, (याम्) = जिस कृत्या को (दुन्दुभौ) = युद्धवाद्यों के विषय में (चक्रुः) = करते हैं, (ताम्) = उस सब कृत्या को (पुन:) = फिर (प्रतिहरामि) = वापस उन शत्रुओं को ही प्राप्त कराता हूँ।

    भावार्थ -

    'सभा को, क्रीड़ास्थल को तथा सब व्यवहारों को शत्रुओं के हिंसा-प्रयोगों से बचाया जाए। इसीप्रकार सेना को, शस्त्रास्त्रों को, युद्धवाद्यों को शत्रुकृत कृत्याओं से सुरक्षित करना चाहिए।

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