अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - कुष्ठस्तक्मनाशनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुष्ठतक्मनाशन सूक्त
सु॑पर्ण॒सुव॑ने गि॒रौ जा॒तं हि॒मव॑त॒स्परि॑। धनै॑र॒भि श्रु॒त्वा य॑न्ति वि॒दुर्हि त॑क्म॒नाश॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒प॒र्ण॒ऽसुव॑ने । गि॒रौ । जा॒तम् । हि॒मऽव॑त: । परि॑ । धनै॑: । अ॒भि । श्रु॒त्वा । य॒न्ति॒ । वि॒दु: । हि । त॒क्म॒ऽनाश॑नम् ॥४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सुपर्णसुवने गिरौ जातं हिमवतस्परि। धनैरभि श्रुत्वा यन्ति विदुर्हि तक्मनाशनम् ॥
स्वर रहित पद पाठसुपर्णऽसुवने । गिरौ । जातम् । हिमऽवत: । परि । धनै: । अभि । श्रुत्वा । यन्ति । विदु: । हि । तक्मऽनाशनम् ॥४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
विषय - हिमाच्छादित पर्वतों पर होनेवाला 'कुष्ठ'
पदार्थ -
२. (सुपर्णसुवने) = पालनात्मक उत्तम औषधियों को जन्म देनेवाले (गिरौ) = पर्वत पर (हिमवतः परिजातम्) = हिमाच्छादित प्रदेशों में उत्पन्न हुए-हुए 'कुष्ठ' को (श्रुत्वा) = सुनकर (धनैः अभियन्ति) = धनों से उसकी ओर जाते हैं-धन लेकर उस ओषधि के क्रय के लिए जाते हैं। २. इस कुष्ठ को वे (हि) = निश्चय से (तक्मनाशनम् विदुः) = ज्वरनाशक जानते हैं।
भावार्थ -
कुष्ठ नामक औषध उन हिमाच्छादित पर्वतों पर होती है जो पालनात्मक उत्तम ओषधियों को जन्म देनेवाले हैं। मनुष्य धन लेकर इनके क्रय के लिए उन स्थानों पर पहुँचते हैं।
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