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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठस्तक्मनाशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठतक्मनाशन सूक्त

    अ॑श्व॒त्थो दे॑व॒सद॑नस्तृ॒तीय॑स्यामि॒तो दि॒वि। तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्व॒त्थ: । दे॒व॒ऽसद॑न:। तृ॒तीय॑स्याम् । इ॒त: । दि॒वि । तत्र॑ । अ॒मृत॑स्य । चक्ष॑णम् । दे॒वा: । कुष्ठ॑म् । अ॒व॒न्व॒त ॥४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वत्थो देवसदनस्तृतीयस्यामितो दिवि। तत्रामृतस्य चक्षणं देवाः कुष्ठमवन्वत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वत्थ: । देवऽसदन:। तृतीयस्याम् । इत: । दिवि । तत्र । अमृतस्य । चक्षणम् । देवा: । कुष्ठम् । अवन्वत ॥४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (अश्वत्थ:) = सर्वव्यापक प्रभु में स्थित होनेवाले [तस्य भासा सर्वमिदं विभाति] यह सूर्य (देवसदन:) = देवों का निवास-स्थान है [मर्त्यलोक में मनुष्य, चन्द्रलोक में पितर और सूर्यलोक में देव]। यह (इत:) = इस पृथिवी से (तृतीयस्याम्) = तीसरे (दिवि) = प्रकाशमय झुलोक में है [पृथिवी, अन्तरिक्ष, धुलोक]। २. (तत्र) = उस सूर्य में (अमृतस्य) = अमृत का-सब प्राणदायी तत्त्वों का (चक्षणम्) = दर्शन होता है। यही अमृत उन हिमाच्छादित पर्वतों पर उत्पन्न कुष्ठ में सूर्य-किरणों द्वारा स्थापित होता है, अत: (देवा:) = सब रोगों को जीतने की कामनावाले पुरुष (कुष्ठम्) = कुष्ठ को (अवन्वत) = प्राप्त करते हैं [वन संभक्तो]।

    भावार्थ -

    हिमाच्छादित पर्वतों पर उत्पन्न होनेवाले कुष्ठ में सूर्य-किरणों द्वारा अमृत की [अमृतमय तत्त्वों की] स्थापना होती है, इसलिए देव कुष्ठ को प्राप्त करने के लिए यत्नशील होते हैं।

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