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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठस्तक्मनाशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठतक्मनाशन सूक्त

    उद॑ङ्जा॒तो हि॒मव॑तः॒ स प्रा॒च्यां नी॑यसे॒ जन॑म्। तत्र॒ कुष्ठ॑स्य॒ नामा॑न्युत्त॒मानि॒ वि भे॑जिरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उद॑ङ् । जा॒त: । हि॒मऽव॑त: । स: । प्रा॒च्याम् । नी॒य॒से॒ । जन॑म् । तत्र॑ । कुष्ठ॑स्य । नामा॑नि । उ॒त्ऽत॒मानि॑ । वि । भे॒जि॒रे॒ ॥४.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदङ्जातो हिमवतः स प्राच्यां नीयसे जनम्। तत्र कुष्ठस्य नामान्युत्तमानि वि भेजिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उदङ् । जात: । हिमऽवत: । स: । प्राच्याम् । नीयसे । जनम् । तत्र । कुष्ठस्य । नामानि । उत्ऽतमानि । वि । भेजिरे ॥४.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. यह कुष्ठ (उदङ) = उत्तर में (हिमवतः) = हमाच्छादित पर्वतों से (जातः) = उत्पन्न होता है। सः वह यह कुष्ठ (प्राच्याम्) = पूर्व दिशा में (जनं नीयसे) = लोगों के समीप प्राप्त कराया जाता है। हिमाच्छादित पर्वतों पर उत्पन्न हुआ-हुआ यह कुष्ठ सुदूर पूर्व दिशा में स्थित प्रदेशों में लोगों द्वारा उपयुक्त होता है। २. (तत्र) = वहाँ, उन प्रदेशों में (कुष्ठस्य उत्तमानि नामानि) = कुष्ठ के उत्तम नामों का (विभेजिरे) = वे लोग सेवन करते हैं। 'व्याधिः कुष्ठं पारिभाव्य व्यासपाकलमुत्पलम् इन नामों का स्मरण करते हुए वे कहते हैं कि यह औषध [विगत: आधियेन] रोगों को भगानेवाली है, [कुष्णाति रोगम्] रोग को उखाड़ फेंकनेवाली है [परिभावे साधुः] रोग-पराजय में उत्तम है [व्यापे साधुः] सोमशक्ति को शरीर में व्याप्त करने में उत्तम है 'सोमस्यासि सखा हितः'। [पाकं लाति] शक्तियों का परिपाक प्राप्त कराती है, [उत्पलति] शरीर में सोम की ऊर्ध्व गति का कारण बनती है।

    भावार्थ -

    उत्तर में हिमाच्छादित पर्वतों पर उत्पन्न हुआ-हुआ यह कुष्ठ पूर्व आदि दिशाओं में प्राप्त कराया जाता है। वहाँ सब इसके गुणसूचक उत्तम नामों का स्मरण करते हैं।

     

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