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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 4/ मन्त्र 9
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठस्तक्मनाशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठतक्मनाशन सूक्त

    उ॑त्त॒मो नाम॑ कुष्ठास्युत्त॒मो नाम॑ ते पि॒ता। यक्ष्मं॑ च॒ सर्वं॑ ना॒शय॑ त॒क्मानं॑ चार॒सं कृ॑धि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽत॒म: । नाम॑ । कु॒ष्ठ॒ । अ॒सि॒ । उ॒त्ऽत॒म: । नाम॑ । ते॒ । पि॒ता । यक्ष्म॑म् । च॒ । सर्व॑म् । ना॒शय॑ । त॒क्मान॑म् । च॒ । अ॒र॒सम् । कृ॒धि॒ ॥४.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तमो नाम कुष्ठास्युत्तमो नाम ते पिता। यक्ष्मं च सर्वं नाशय तक्मानं चारसं कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽतम: । नाम । कुष्ठ । असि । उत्ऽतम: । नाम । ते । पिता । यक्ष्मम् । च । सर्वम् । नाशय । तक्मानम् । च । अरसम् । कृधि ॥४.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 9

    पदार्थ -

    १. हे (कुष्ठ) = कुष्ठ औषध! तू (उत्तम: नाम असि) = निश्चय से उत्तम है-रोगों को उखाड़ फेंकने में सर्वोत्तम है। (ते पिता उत्तमः नाम) = तेरा उत्पादक यह हिमाच्छादित पर्वत भी निश्चय से उत्तम है-यह भी रोगों को दूर करनेवाला है। इसलिए यक्ष्मा के रोगी को पर्वत पर ले जाने के लिए कहा जाता है। २. हे कुष्ठ ! तू (सर्व यक्ष्मं च नाशय) = सब रोगों को तो नष्ट कर ही (च) = और (तक्मानम्) = ज्वर को (अरसं कृधि) = नि:सार कर दे-तू ज्वर को दूर करनेवाला हो।

    भावार्थ -

    कुष्ठ औषध व इसका जनक हिमाच्छादित पर्वत-दोनों ही रोगों को उखाड़ फेंकने में सर्वोत्तम हैं।



     

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