अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
सूक्त - अथर्वा
देवता - सोमारुद्रौ
छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
अपै॑तेनारात्सीरसौ॒ स्वाहा॑। ति॒ग्मायु॑धौ ति॒ग्महे॑ती सु॒षेवौ॒ सोमा॑रुद्रावि॒ह सु मृ॑डतं नः ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । एतेन॑ ।अ॒रा॒त्सी॒: । अ॒सौ॒ । स्वाहा॑ । ति॒ग्मऽआ॑युधौ । ति॒ग्महे॑ती॒ इति॑ ति॒ग्मऽहे॑ती । सु॒ऽशेवौ॑ । सोमा॑रुद्रौ । इ॒ह । सु । मृ॒ड॒त॒म् । न॒: ॥६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अपैतेनारात्सीरसौ स्वाहा। तिग्मायुधौ तिग्महेती सुषेवौ सोमारुद्राविह सु मृडतं नः ॥
स्वर रहित पद पाठअप । एतेन ।अरात्सी: । असौ । स्वाहा । तिग्मऽआयुधौ । तिग्महेती इति तिग्मऽहेती । सुऽशेवौ । सोमारुद्रौ । इह । सु । मृडतम् । न: ॥६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
विषय - आपः, ज्योतिः, रसः, अमृतम्
पदार्थ -
१. प्रभु का घर बननेवाले, प्रभु को अपने हृदय-मन्दिर में प्रतिष्ठित करनेवाले जीव! (असौ) = वह तू (एतेन) = इस प्रभु के द्वारा (अव अरात्सी:) = शत्रुओं को [injure. kill, destroy, exterminate] कुचल देनेवाला होता है, अतः (स्वाहा) = तू उस प्रभु के प्रति समपर्ण कर। शेष पूर्ववत्।
२. (एतेन) = इस प्रभु के द्वारा (असौ) = वह तू (अप अरात्सी:) = इन शत्रुओं को सुदूर नष्ट करनेवाला होता है, अत: स्वाहा इस प्रभु के प्रति तू अपना अर्पण कर। शेष पूर्ववत्।
भावार्थ -
प्रभु की आराधना से हमारे जीवनों में सोम और रुद्रतत्त्व का-आप:+ज्योति का इसप्रकार समन्वय होता है कि जीवन में सब शत्रुओं की समासि होकर रस का प्रादुर्भाव होता है और अमृत की प्राप्ति होती है [आपो ज्योती रसोऽमृतम्]।
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