अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
सूक्त - अथर्वा
देवता - सोमारुद्रौ
छन्दः - एकावसाना द्विपदार्च्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
मु॑मु॒क्तम॒स्मान्दु॑रि॒ताद॑व॒द्याज्जु॒षेथां॑ य॒ज्ञम॒मृत॑म॒स्मासु॑ धत्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठमु॒मु॒क्तम् । अ॒स्मान् । दु॒:ऽइ॒तात् । अ॒व॒द्यात् । जु॒षेथा॑म् । य॒ज्ञम् । अ॒मृत॑म् । अ॒स्मासु॑ । ध॒त्त॒म् ॥६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
मुमुक्तमस्मान्दुरितादवद्याज्जुषेथां यज्ञममृतमस्मासु धत्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठमुमुक्तम् । अस्मान् । दु:ऽइतात् । अवद्यात् । जुषेथाम् । यज्ञम् । अमृतम् । अस्मासु । धत्तम् ॥६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 8
विषय - अवदय से दूर, यज्ञ के समीप
पदार्थ -
१. गतमन्त्रों में वर्णित सोम और रुद्रतत्वों से प्रार्थना करते हैं कि (अस्मान्) = हमें उठता है, इन्हें वशीभूत करता है और सब बातों को माप-तोल कर करता है। (अवद्यात्) = निन्दनीय (दुरितात्) = दुराचार से से (मुमुक्तुम्) = मुक्त करो, (यज्ञं जुषेथाम्) = यज्ञ को प्रीतिपूर्वक सेवित कराओ और इसप्रकार (अस्मासु) = हममें (अमृतं धत्तम्) = अमृतत्व का स्थापन करो - हमें निरोग और मोक्ष का पात्र बनाओ |
भावार्थ -
हम सोम और रुदतत्त्वों के सुंदर समन्वय से निन्दनीय दुराचारों से प्रथक् रहकर यज्ञों में प्रवृत्त हों| इसप्रकार निरोगता व मोक्ष को प्राप्त करें |
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