अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
अना॑प्ता॒ ये वः॑ प्रथ॒मा यानि॒ कर्मा॑णि चक्रि॒रे। वी॒रान्नो॒ अत्र॒ मा द॑भ॒न्तद्व॑ ए॒तत्पु॒रो द॑धे ॥
स्वर सहित पद पाठअना॑प्ता: । ये । व॒: । प्र॒थ॒मा: । यानि॑ । कर्मा॑णि। च॒क्रि॒रे । वी॒रान् । न॒: । अत्र॑ । मा । द॒भ॒न् । तत् । व॒: । ए॒तत् । पु॒र: । द॒धे॒ ॥६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अनाप्ता ये वः प्रथमा यानि कर्माणि चक्रिरे। वीरान्नो अत्र मा दभन्तद्व एतत्पुरो दधे ॥
स्वर रहित पद पाठअनाप्ता: । ये । व: । प्रथमा: । यानि । कर्माणि। चक्रिरे । वीरान् । न: । अत्र । मा । दभन् । तत् । व: । एतत् । पुर: । दधे ॥६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
विषय - पथ-प्रदर्शक वेदज्ञान
पदार्थ -
१. (ये) = जो (वः) = तुम्हारे (प्रथमा:) = पहले (अनाता:) = अज्ञानी पुरुष (यानि कर्माणि) = जिन कर्मों को (चक्रिरे) = करते हैं, वे अज्ञानवश किये गये भ्रान्त कर्म (अत्र) = यहाँ (न: वीरान्) = हमारी वीर सन्तानों को (मा दभन्) = मत हिंसित करें। (तत्) = उस कारण से (एतत्) = इस बेदज्ञान को (वः पुरः दधे) = तुम्हारे आगे स्थापित करता हूँ। २. हमसे पहले के बड़े आदमी भी अज्ञानवश कुछ भ्रान्त कर्म कर बैठते हैं। उन्हें देखकर उन्हीं कर्मों में प्रवृत्त हो जाने से हानिकर परम्पराएँ चल पड़ती हैं। वे हमारे लिए हितकर नहीं होती। हमें चाहिए कि हम वेदज्ञान के अनुसार कार्यों को करते हुए (अन्ध) = परम्पराओं में बह जाने से बचें।
भावार्थ -
वेदज्ञान हमारे लिए पथ-प्रदर्शक हो। हम देखादेखी भ्रान्त परम्पराओं में बहकर उलटे कर्म न कर बैठे।
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