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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रगणः छन्दः - पञ्चपदा अनुष्टुबुष्णिक्, त्रिष्टुब्गर्भा जगती सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त

    पर्यु॒ षु प्र ध॑न्वा॒ वाज॑सातये॒ परि॑ वृ॒त्राणि॑ स॒क्षणिः॑। द्वि॒षस्तदध्य॑र्ण॒वेने॑यसे सनिस्र॒सो नामा॑सि त्रयोद॒शो मास॒ इन्द्र॑स्य गृ॒हः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । ऊं॒ इति॑ । सु । प्र । ध॒न्व॒ । वाज॑ऽसातये । परि॑ । वृ॒त्राणि॑ । स॒क्षणि॑: । द्वि॒ष: । तत् । अधि॑। अ॒र्ण॒वेन॑ । ई॒य॒से॒ । स॒नि॒स्र॒स: । नाम । अ॒सि॒ । त्र॒य॒:ऽद॒श: । मास॑: । इन्द्र॑स्य । गृ॒ह: ॥६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पर्यु षु प्र धन्वा वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः। द्विषस्तदध्यर्णवेनेयसे सनिस्रसो नामासि त्रयोदशो मास इन्द्रस्य गृहः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । ऊं इति । सु । प्र । धन्व । वाजऽसातये । परि । वृत्राणि । सक्षणि: । द्विष: । तत् । अधि। अर्णवेन । ईयसे । सनिस्रस: । नाम । असि । त्रय:ऽदश: । मास: । इन्द्रस्य । गृह: ॥६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि वाजसातये-शक्ति की प्रासि के लिए (परि उ स प्रधन्व) = चारों ओर अपने कर्तव्यकर्मों में खूब गतिवाला हो। इस क्रियाशीलता के द्वारा (वृत्राणि) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (परिसक्षणि) = चारों ओर से पराभूत करनेवाला हो। २. (तत्) = तब (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं को (अर्णवेन) = ज्ञानसमुद्र से (अधिईसये) = आक्रान्त करता है-ज्ञान प्राप्त करके द्वेष आदि से ऊपर उठता है। (सनिस्रस: नाम असि) = शत्रुओं को अतिशयेन नीचे गिरानेवाला तू निश्चय से 'सनिस्नस' है। (त्रयोदशः) = दस इन्द्रियाँ, ग्यारवौं मन, बारहवीं बुद्धि और तेरहवाँ आत्मा [इन्द्रियाणि पराण्याहुः, इन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिः बुद्धेरात्मा महान् पर: 1] (मास:) = [मसि परिमाणे] सब वस्तुओं में परिमाण को करनेवाला-मर्यादा में चलानेवाला यह आत्मा (इन्द्रस्य गृहः) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का घर होता है, अर्थात् उस आत्मा में प्रभु का निवास होता है, जोकि तेरहवाँ बनता है-इन्द्रियों, मन और बुद्धि से ऊपर उठता है, इन्हें वशीभूत करता है और सब बातों को माप-तोल कर करता है।

    भावार्थ -

    हम गतिशील बनें, वासनाओं को जीतें। द्वेषादि की भावनाओं को जानसमुद्र में डुबो दें। सब वासनाओं को कुचलकर इन्द्रियों, मन व बुद्धि को वशीभूत करें तभी प्रभु को प्राप्त कर पाएँगे।

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