अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 6/ मन्त्र 10
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः
सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
यो॒स्मांश्चक्षु॑षा॒ मन॑सा॒ चित्त्याकू॑त्या च॒ यो अ॑घा॒युर॑भि॒दासा॑त्। त्वं तान॑ग्ने मे॒न्यामे॒नीन्कृ॑णु॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्मान् । चक्षु॑षा । मन॑सा । चित्त्या॑ । आऽकू॑त्या । च॒ । य: । अ॒घ॒ऽयु: । अ॒भि॒ऽदासा॑त् । त्वम् । तान् । अ॒ग्ने॒ । मे॒न्या । अ॒मे॒नीन् । कृ॒णु॒ । स्वाहा॑ ॥६.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
योस्मांश्चक्षुषा मनसा चित्त्याकूत्या च यो अघायुरभिदासात्। त्वं तानग्ने मेन्यामेनीन्कृणु स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्मान् । चक्षुषा । मनसा । चित्त्या । आऽकूत्या । च । य: । अघऽयु: । अभिऽदासात् । त्वम् । तान् । अग्ने । मेन्या । अमेनीन् । कृणु । स्वाहा ॥६.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 10
विषय - 'मेन्या अमेनीन् कृणु'
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (यः यः) = जो-जो भी (अघायुः) = पाप की कामनावाला (चक्षुषा) = अशुभ दृष्टि से (मनसा) = अशुभभावों से (चित्या) = ज्ञान के दुरुपयोग से (च) = तथा (आकूत्या) = अशिवसंकल्प से (अस्मान् अभिदासात्) = हमें विनष्ट करना चाहता है, (त्वम्)=- आप (तान्) = उन सबको (मेन्या) = वज्र द्वारा (अमेनीन्) = वज्ररहित कृणु कीजिए, (स्वाहा) = हम आपके प्रति अपना अर्पण करते हैं । २. चाहिए तो यह कि हम सभी को भद्रदृष्टि से देखें, मन में सभी के प्रति भद्र भावनावाले हों, ज्ञान से सबमें आत्मभाववाले हों तथा शिवसंकल्प ही करें, परन्तु यदि कोई इन पवित्र साधनों का दुरुपयोग करता हुआ हमें विनष्ट करना चाहता है तो प्रभु उस (अघायु) = पापी के इन वज्रों को अवज्र करने की कृपा करें।
भावार्थ -
हम अघायु न बनें और हमारे 'चक्षु, मन, चित्त व संकल्प' अघायुओं के लिए वज्र-तुल्य बनें। ये अघायुओं को वज्ररहित करनेवाले हों ।
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