अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 10
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
प्रा॒णः प्र॒जा अनु॑ वस्ते पि॒ता पु॒त्रमि॑व प्रि॒यम्। प्रा॒णो ह॒ सर्व॑स्येश्व॒रो यच्च॑ प्रा॒णति॒ यच्च॒ न ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒ण: । प्र॒ऽजा: । अनु॑ । व॒स्ते॒ । पि॒ता । पु॒त्रम्ऽइ॑व । प्रि॒यम् । प्रा॒ण: । ह॒ । सर्व॑स्य । ई॒श्व॒र: । यत् । च॒ । प्रा॒णति॑ । यत् । च॒ । न ॥६.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणः प्रजा अनु वस्ते पिता पुत्रमिव प्रियम्। प्राणो ह सर्वस्येश्वरो यच्च प्राणति यच्च न ॥
स्वर रहित पद पाठप्राण: । प्रऽजा: । अनु । वस्ते । पिता । पुत्रम्ऽइव । प्रियम् । प्राण: । ह । सर्वस्य । ईश्वर: । यत् । च । प्राणति । यत् । च । न ॥६.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 10
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( पिता पुत्रम् इव प्रियम् ) = जैसे दयालु पिता अपने प्यारे पुत्र को वस्त्र से आच्छादन करता है, वैसे ही ( प्राणः ) = चेतन स्वरूप प्राण देव प्रभु ( प्रजा अनु वस्ते ) = मनुष्य पशु, पक्षी आदि प्रजाओं के शरीरों में व्याप्त हो कर बस रहा है, ( यत् च प्राणति ) = और जो जङ्गम वस्तु चलन आदि व्यापार कर रही है ( यत् च न ) = और जो स्थावर वस्तु वह व्यापार नहीं करती, ( प्राणः ह सर्वस्य ईश्वर: ) = उस चर-अचर स्वरूप सब जगत् का चेतनस्वरूप प्राण ही ईश्वर है, अर्थात् सबका प्रेरक स्वामी है।
भावार्थ -
भावार्थ = हे परमेश्वर ! आप चराचर सब जगत् में व्याप रहे हैं, ऐसी कोई वस्तु वा स्थान नहीं, जहाँ आपकी व्याप्ती न हो, आप ही सारे संसार के कर्ता, हर्ता और स्वामी हैं, सब की क्षण-क्षण चेष्टाओं को देख रहे हैं, आपसे किसी की कोई बात भी छिपी नहीं, इसलिए हमें सदाचारी और अपना प्रेमी भक्त बनावें, जिन को देख कर आप प्रसन्न हों ।
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