अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
नम॑स्ते अस्त्वाय॒ते नमो॑ अस्तु पराय॒ते। नम॑स्ते प्राण॒ तिष्ठ॑त॒ आसी॑नायो॒त ते॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । आ॒ऽय॒ते । नम॑: । अ॒स्तु॒ । प॒रा॒ऽय॒ते । नम॑: । ते॒ । प्रा॒ण॒ । तिष्ठ॑ते । आसी॑नाय । उ॒त । ते॒ । नम॑: ॥६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते अस्त्वायते नमो अस्तु परायते। नमस्ते प्राण तिष्ठत आसीनायोत ते नमः ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । ते । अस्तु । आऽयते । नम: । अस्तु । पराऽयते । नम: । ते । प्राण । तिष्ठते । आसीनाय । उत । ते । नम: ॥६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 7
पदार्थ -
शब्दार्थ = हे ( प्राण ) = जीवनदाता परमेश्वर ( आयते ) = आते हुए पुरुष के हित के लिए ( ते नमः ) = आपको नमस्कार ( अस्तु ) = हो । ( परायते ) = बाहिर जाते हुए पुरुष के लिए ( ते नमः ) = आपको नमस्कार हो । ( तिष्ठते ) = खड़े हुए पुरुष के हित के लिए ( नमः ) = आपको नमस्कार हो । ( उत ) = और ( आसीनाय ) = बैठे हुए पुरुष के हित के लिए ( ते नमः ) = आपको नमस्कार हो ।
भावार्थ -
भावार्थ = मनुष्यमात्र को चाहिये कि अपने किसी बन्धुवर्ग व मित्र के आने-जाने में परमात्मा से प्रार्थना करे और अपने लिए भी उस परमात्मा से हर एक चेष्टा में प्रार्थना करे, जिससे अपने मित्रों के और अपने काम निर्विघ्नता से सम्पूर्ण हों ।
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