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  • यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 6
    ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः देवता - परमात्मा देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    येन॒ द्यौरु॒ग्रा पृ॑थि॒वी च॑ द्य्॒ढा येन॒ स्व स्तभि॒तं येन॒ नाकः॑।योऽ अ॒न्तरि॑क्षे॒ रज॑सो वि॒मानः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑। द्यौः। उ॒ग्रा। पृ॒थि॒वी। च॒। दृ॒ढा। येन॑। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। स्त॒भि॒तम्। येन॑। नाकः॑ ॥ यः। अ॒न्तरि॑क्षे। रज॑सः। विमान॒ इति॑ वि॒ऽ मानः॑। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒ ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्व स्तभितँयेन नाकः । यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    येन। द्यौः। उग्रा। पृथिवी। च। द्य्ढा। येन। स्वरिति स्वः। स्तभितम्। येन। नाकः॥ यः। अन्तरिक्षे। रजसः। विमान इति विऽ मानः। कस्मै। देवाय। हविषा। विधेम॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 32; मन्त्र » 6
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    भावार्थ -
    (येन) जिस परमेश्वर ने ( द्यौः ) आकाश को (उग्रा) विशेष बलशालिनी और वृष्टिदायिनी बनाकर उसको धारण किया और (येन) जिसने (दृढा च पृथिवी) पृथिवी को दृढ बना कर धारण किया । (येन ) जिसने (स्व: स्तभितम् ) समस्त सुख या तेजोमय आदित्य को धारण किया है, (येन नाक: ) जिसने आनन्दमय, सर्वदुःखरहित मोक्ष को धारण किया है । (यः) जो (अन्तरिक्षे ) अन्तरिक्ष में विद्यमान (रजसः) समस्त लोकों को और ( विमानः ) विशेष रूप से बनाने और जानने हारा है (कस्मै) उस प्रजापति स्वरूप, आनन्दमय, परमेश्वर की (हविषा) भक्ति से ( विधेम ) स्तुति अर्चना करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - परमात्मा । निवृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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