यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 13
ऋषिः - आदित्या देवा ऋषयः
देवता - सूर्य्यो देवता
छन्दः - स्वराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
अ॒न॒ड्वाह॑म॒न्वार॑भामहे॒ सौर॑भेयꣳ स्व॒स्तये॑।स न॒ऽइन्द्र॑ऽइव दे॒वेभ्यो॒ वह्निः॑ स॒न्तर॑णो भव॥१३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न॒ड्वाह॑म्। अ॒न्वार॑भामह॒ऽइत्य॑नु॒ऽआर॑भामहे। सौर॑भेयम्। स्व॒स्तये॑ ॥ सः। नः॒। इन्द्र॑ऽइ॒वेतीन्द्र॑ इव। दे॒वेभ्यः॑। वह्निः॑। स॒न्तर॑ण॒ इति॑ स॒म्ऽतर॑णः। भ॒व॒ ॥१३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनड्वाहमन्वारभामहे सौरभेयँ स्वस्तये । स नऽइन्द्रऽइव देवेभ्यो वह्निः सन्तरणो भव ॥
स्वर रहित पद पाठ
अनड्वाहम्। अन्वारभामहऽइत्यनुऽआरभामहे। सौरभेयम्। स्वस्तये॥ सः। नः। इन्द्रऽइवेतीन्द्र इव। देवेभ्यः। वह्निः। सन्तरण इति सम्ऽतरणः। भव॥१३॥
विषय - अग्रणी धुरन्धर ।
भावार्थ -
( अनड्वाहम् ) शकट को खींचने के लिये जिस प्रकार लोग बड़े बैल को प्राप्त करते हैं और 'अन:' अर्थात् यज्ञ धारण करने वाले अग्नि को जिस प्रकार याज्ञिक लोग ग्रहण करते हैं उसी प्रकार ( अनड्वाहम् ) गाड़ी के समान राष्ट्र के शकट को उठाने में समर्थ ( सौरभेयम् ) सुरभि अर्थात् समस्त सुखदायी कामधेनु, उत्तम भूमि के परम हितकारी, मातृ-भूमि के सच्चे पुत्र राजा को हम (स्वस्तये) कल्याण के लिये ( आरभामहे ) प्राप्त करें, स्थापित करें । (सः) बह (इन्द्रः इव) सूर्य और वायु के समान तेजस्वी, बलवान्, ऐश्वर्यवान् सेनापति और राजा होकर अथवा (देवेभ्यः इन्द्रः इव) इन्द्रियों के लिये आत्मा के समान (वह्निः) समस्त राज्याह्नों और देवों को बहन करने में समर्थ और उनका नेता होकर (संतरण: भव) सबको भली प्रकार युद्ध आदि और राज्यकार्यों के पार लगाने वाला, नाव के समान आश्रय और कर्णधार के समान नायक हो।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अनड्वाहम् कृषीवलाः । स्वराडनुष्टुप् । गांधारः ॥
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal