यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 3
ऋषिः - आदित्या देवा ऋषयः
देवता - वायु सविता च देवते
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
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वा॒युः पु॑नातु सवि॒ता पु॑नात्व॒ग्नेर्भ्राज॑सा॒ सूर्य॑स्य॒ वर्च॑सा।वि मु॑च्यन्तामु॒स्रियाः॑॥३॥
स्वर सहित पद पाठवा॒युः। पु॒ना॒तु॒। स॒वि॒ता। पु॒ना॒तु॒। अ॒ग्नेः। भ्राज॑सा। सूर्य्य॑स्य॒ वर्च॑सा ॥ वि। मु॒च्य॒न्ता॒म्। उ॒स्रियाः॑ ॥३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वायुः पुनातु सविता पुनात्वग्नेर्भ्राजसा सूर्यस्य वर्चसा । विमुच्यन्तामुस्रियाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
वायुः। पुनातु। सविता। पुनातु। अग्नेः। भ्राजसा। सूर्य्यस्य वर्चसा॥ वि। मुच्यन्ताम्। उस्रियाः॥३॥
विषय - वायु का पवित्रकारक गुण ।
भावार्थ -
कृषिपक्ष में- हल वाह देने पर क्षेत्र को ( वायुः ) वायु (अग्नेः) आग की (भ्राजसा) ज्वाला से और (सविता) सूर्य (सूर्यस्य वर्चसा) अपने ही प्रकाश से ( पुनातु ) पवित्र करे । इसलिये (उस्त्रिया:) बैल ( वि मुच्यन्ताम् ) छोड़ दिये जायं । (२) जीव पक्ष में—जब जीव शरीर त्याग कर जाता है तो उसे ( वायुः ) वायु, ज्ञानी पुरुष (अग्नेः भ्राजसा) अग्नि या परमेश्वर की दीप्ति से और ( सविता सूर्यस्य वर्चसा ) सर्वोत्पादक सूर्य प्रभु अपने प्रकाश से पवित्र करे । देहान्तर प्राप्ति समय वे पूर्वोक्त ( उस्त्रियाः ) सहयोगी कारण भी ( वि मुच्यन्ताम् ) उससे छूट जायं।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सविता । उष्णिक् । ऋषभः ॥
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