यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 6
प्र॒जाप॑तौ त्वा दे॒वता॑या॒मुपो॑दके लो॒के नि द॑धाम्यसौ।अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम्॥६॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाप॑ता॒विति॑ प्र॒जाऽप॑तौ। त्वा॒। दे॒वता॑याम्। उपो॑दक॒ इत्युप॑ऽउदके। लो॒के। नि। द॒धा॒मि॒। अ॒सौ॒ ॥ अप॑। नः॒। शोशु॑चत्। अ॒घम् ॥६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतौ त्वा देवतायामुपोदके लोके निदधाम्यसौ । अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रजापताविति प्रजाऽपतौ। त्वा। देवतायाम्। उपोदक इत्युपऽउदके। लोके। नि। दधामि। असौ॥ अप। नः। शोशुचत्। अघम्॥६॥
विषय - प्रजापति के कर्म
भावार्थ -
हे (असौ) पुरुष प्रजाजन ! (त्वा ) तुझको मैं ( जापतौ ) प्रजा के पालक राजा के अधीन (उप-उदके लोके ) पानी के समीप स्थित प्रदेश में (निदधामि ) नियत रूप से स्थापित करता हूँ। वह प्रजापालक राजा ही (नः) हमारे (अघम् ) पापाचरण, परस्पर घात प्रतिघात आदि को (नः) हममें से ( अप शोशुचत् ) मल को अग्नि से जलाकर नष्ट कर देने के समान दूर कर शुद्ध करे । (२) हे जीव ! जलादि जीवनोपयोगी लोक में मैं तुझे स्थापित करता हूँ । उस परमेश्वर के अधीन तू रह, हमारे पापों को दग्ध करे, दूर करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिः । उष्णिक् । ऋषभः ॥
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