यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 12
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
अ॒न्धन्तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ येऽवि॑द्यामु॒पास॑ते।ततो॒ भूय॑ऽइव॒ ते तमो॒ यऽउ॑ वि॒द्याया॑ र॒ताः॥१२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्धम्। तमः॑। प्र। वि॒श॒न्ति॒। ये। अवि॑द्याम्। उ॒पास॑त॒ इत्यु॑प॒ऽआस॑ते ॥ ततः॑। भूय॑ऽइ॒वेति॒ भूयः॑ऽइव। ते। तमः॑। ये। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। वि॒द्याया॑म्। र॒ताः ॥१२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्धन्तमः प्रविशन्ति येविद्यामुपासते । ततो भूयऽइव ते तमो यऽउ विद्यायाँ रताः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अन्धम्। तमः। प्र। विशन्ति। ये। अविद्याम्। उपासत इत्युपऽआसते॥ ततः। भूयऽइवेति भूयःऽइव। ते। तमः। ये। ऊँऽइत्यूँ। विद्यायाम्। रताः॥१२॥
विषय - विद्या अविद्या का ज्ञान । उन दोनों की उपासना का फल । मृत्यु और वरण ।
भावार्थ -
(ये) जो लोग ( अविद्याम् ) अविद्या अर्थात् नित्य, पवित्र, सुख और आत्मा से भिन्न पदार्थों को नित्य, पवित्र, सुख और आत्मा ( उपासते ) करके जानते हैं, उसी प्रकार मिथ्या ज्ञान में मग्न रहते हैं वे ( अन्धं तमः ) गहरे अन्धकार में ( प्रविशन्ति ) प्रवेश करते हैं । वे बड़े अज्ञान में रहते हैं और (ये उ) जो भी (विद्यायाम् रताः) विद्या अर्थात् केवल शास्त्राभ्यास में ही (रताः) लगे रहते हैं वे (तत: भूयः इव) उससे भी अधिक (तमः) अज्ञानान्धकार में कष्ट पाते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - आत्मा | निचृद् अनुष्टुप् । गांधारः ॥
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