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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 34/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - ब्रह्मौदनम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त

    अ॑न॒स्थाः पू॒ताः पव॑नेन शु॒द्धाः शुच॑यः॒ शुचि॒मपि॑ यन्ति लो॒कम्। नैषां॑ शि॒श्नं प्र द॑हति जा॒तवे॑दाः स्व॒र्गे लो॒के ब॒हु स्त्रैण॑मेषाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न॒स्था: । पू॒ता: । पव॑नेन । शु॒ध्दा: । शुच॑य: । शुचि॑म् । अपि॑ । य॒न्ति॒ । लो॒कम् । न । ए॒षा॒म् । शि॒श्नम् । प्र । द॒ह॒ति॒ । जा॒तऽवे॑दा: । स्व॒:ऽगे । लो॒के । ब॒हु । स्त्रैण॑म् । ए॒षा॒म् ३४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनस्थाः पूताः पवनेन शुद्धाः शुचयः शुचिमपि यन्ति लोकम्। नैषां शिश्नं प्र दहति जातवेदाः स्वर्गे लोके बहु स्त्रैणमेषाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनस्था: । पूता: । पवनेन । शुध्दा: । शुचय: । शुचिम् । अपि । यन्ति । लोकम् । न । एषाम् । शिश्नम् । प्र । दहति । जातऽवेदा: । स्व:ऽगे । लोके । बहु । स्त्रैणम् । एषाम् ३४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 34; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    उक्त प्रकार के प्रजापति परमात्मा की उपासना एवं ज्ञान करने वाले ब्रह्मचारीगण ऐसे होने चाहिये कि वे (अनस्थाः) खूब हृष्ट पुष्ट और बलिष्ठ हों, उनकी हड्डियां दीखे नहीं, (पूताः) आचार से वे पवित्र हों, (पवनेन शुद्धाः) प्राणायाम की क्रिया द्वारा शुद्ध हों, (शुचयः) विचार से पवित्र हों, ऐसे होकर वे (शुचिं लोकम्) शुद्ध लोक अर्थात् गृहस्थ-लोक को (अपियन्ति) प्राप्त होते हैं। (जातवेदाः) ब्रह्मचर्यावस्था में प्राप्त ज्ञान या परमात्माग्नि का ध्यान (एषाम्) इनकी (शिश्नम्) कामेन्द्रिय को (न दहति) दग्ध नहीं करता, (स्वर्गे लोके) चाहे गृहस्थ स्वर्गलोक में (एषाम्) इनके आस पास (बहु स्त्रैणम्) बहुत सम्बन्धों की स्त्रियां रहती हैं। अर्थात् ब्रह्मचर्यावस्था में आचार-विचार को पवित्र कर के ब्रह्मचारी जब गृहस्थ में प्रवेश करता है तो वह इस आश्रम को स्वर्ग धाम बना देता है। वह ब्रह्मचर्यावस्था में प्राप्त ज्ञान के प्रताप से अपने आपको इस आश्रम में दग्ध नहीं होने देता, चाहे उसके चारों ओर इस गृह आश्रम में बहिनें, माता, चाची, चचेरी बहिन, पुत्रवधू आदि नाना स्त्रियां विद्यमान भी हों।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। ब्रह्मास्यौदनं विष्टारी ओदनं वा देवता। १-३ त्रिष्टुभः। ५ त्र्यवसाना सप्तपदाकृतिः। ६ पञ्चपदातिशक्वरी। ७ भुरिक् शक्वरी, ८ जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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